Book Title: Jain Darshan Ke Pariprekshya Me Aadipuran
Author(s): Supriya Sadhvi
Publisher: Bharatiya Vidya Prakashan

View full book text
Previous | Next

Page 336
________________ आदिपुराण में पुण्य-पाप आस्रव संवर, निर्जरा, निर्जरा के हेतु तप... 295 429. आ.पु. 2.72 (टीका); ति.पु. 4.108 430. ति.प. 4.1083; आ.पु. 2.72 (टीका) 431. ति.प. 4.1080-1081; आ.पु. 2.72 (टीका) 432. आ.पु. 2.72 (टीका); ति.पु. 4.1081-1082 433. ति.प. 4.1086--1087; आ.पु. 2.72 434. स बलद्धिर्बलांधानादसोढोग्रान् परीषहान्। अन्यथा तादृशं द्वन्द्वं कः सहेत सुदुस्सहम्।। - आ.पु. 11.87 435. नमो मनोवचः काय बलिना ते बलीयसे। - आ.पु. 2.72 436. आ.पु. 2.72 (टीका) 437. जै.सि.को. (भा. 1) पृ. 485 438. ति.प. 4.1061-1062; आ.पु. 2.72 (टीका) 439. जै.सि.को., भा.1 पृ.485 440. आ.पु. 2.72 (टीका) 441. ति.प. 4.1065-1066 442. जै.सि.को., भा.1 पृ. 485 443. क्षेत्रं निवासो वर्तमानकालविषयः। - स.सि. 1.8.39.7 444. जै.सि.को., भा.1 पृ. 478 445. ति.प. 4.1088 446. आ.पु. 2.72 (टीका) 447. ति.प. 4.1089-1091. 448. का चेदानस्य संशुद्धि श्रृणु भी भरताधिप। अनुग्रहार्थ स्वस्यातिसर्गो दानं त्रिशुद्धिकम्।। - आ.पु. 20.135 449. परानुग्रहबुद्ध्या स्वस्यातिसर्जनं दानम्। जै.सि.को., (भा 2) पृ. 421 450. वही 451. अनुग्रहार्थं स्वस्याति सर्गोदानम्। - त.सू. 7.33. 452. त.सू. (के.मु.) 7.34 (वि.) 453. पात्रं तत्पात्र वज्ज्ञेयं विशुद्धगुणधारणात्। यानपात्रमिवाभीष्टदेशे संप्रापकं च यत्।। -- आ.पु. 20.144 454. ततः परमनिर्वाणसाधनं रूपमुहहन्। कायस्थित्यर्थमाहारमिच्छन् ज्ञानादिसिद्धये।। न वाञ्छन् बलमायुर्वा स्वादं वा देहपोषणम्। केवलं प्राणधृत्यर्थं संतुष्टो ग्रासमात्रया।।

Loading...

Page Navigation
1 ... 334 335 336 337 338 339 340 341 342 343 344 345 346 347 348 349 350 351 352 353 354 355 356 357 358 359 360 361 362 363 364 365 366 367 368 369 370 371 372 373 374 375 376 377 378 379 380 381 382 383 384 385 386 387 388 389 390 391 392 393 394