Book Title: Jain Darshan Ke Pariprekshya Me Aadipuran
Author(s): Supriya Sadhvi
Publisher: Bharatiya Vidya Prakashan
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आदिपुराण में
पुण्य
- पाप आस्रव संवर, निर्जरा, निर्जरा के हेतु तप ..... 285
215. आ.पु. 7.30
216. अन्तकृत.सू. 8. 9 वि. 217. वही
218. आ. पु. 7.23
19. अन्तकृत सू. 8.3 वि.
220. आ.पु. 7.42; 7.77
221. अन्तकृत. सू. 8.6
222. वही आयम्बिल का अर्थ है स्वाद रहित रूक्ष भोजन ग्रहण करना। (टिप्पणी)
223. अन्तकृत सू. 8.10
224. त.सू. - (के.मु. ) 9.19 (वि.)
225. वही
226. आ.पु. 5.142 (टीका ) 5.226,, 6.57, 10.118;
27. आ.पु. 5.248
228. जै. सि.को. भा. 4, पृ. 381
229. प्रायोपगमनं कृत्वा धीरः स्वपरगोचरान्।
-
उपकारानसौ नैच्छत् शरीरेऽनिच्छतां गतः ।। (भावार्थ )
230. वही
231. ततः कालात्यये धीमान् श्रीप्रभादौ समुन्नते । प्रायोपवेशनं कृत्वा शरीराहारमत्यजत् ।। रत्नत्रयमयीं शय्यामधिशय्य तपोनिधिः । प्रायेणोपविशत्यस्मिन्नित्यन्वर्थमापिपत्।। प्रायेणोपगमो यस्मिन् रत्नत्रितयगोचरः । प्रायेणापगमो यस्मिन् दुरितारिकदम्बकान्।। प्रायेणास्माज्जनस्थानादपसृत्य गमोऽटवेः । प्रायोपगमनं तज्ज्ञैर्निरुक्तं श्रमणोत्तमैः ।। 232. ततः कल्याणि कल्याणं गृहाणोपोषितं व्रतम् । जिनेन्द्रगुणसंपत्तिं श्रुतज्ञानमपि क्रमात् ।। कृतानां कर्मणामार्ये सहसा परिपाचनम्। तपोऽनशनमाम्नातं विधियुक्तमुपोषितम्।। 233. तीर्थकृत्त्वस्य पुण्यस्य कारणानीह षोडश । कल्याणान्यत्र पञ्चैव प्रातिहार्याष्टकं तथा ।।
234. अतिशेषाश्चतुस्त्रिशदिमानुद्दिश्य सद्गुणान् ।
या साऽनुष्ठीयते भव्यैः संपज्जिनगुणादिका । । ( भावार्थ )
आ. पु. 5.234
आ. पु. 11.94-97
आ. पु. 6.141-142
आ. पु. 6.143-144

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