Book Title: Jain Darshan Ke Pariprekshya Me Aadipuran
Author(s): Supriya Sadhvi
Publisher: Bharatiya Vidya Prakashan

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Page 362
________________ आदिपुराण में ईश्वर सम्बन्धी विभिन्न धारणाये और रत्नत्रय विमर्श 321 धर्मात्मक है - अनेकान्तात्मक है, किन्तु दोनों के कथन की मर्यादा भिन्न-भिन्न है। एक का कथन वस्तु के सभी धर्मों का ग्रहण करता है, जबकि दूसरे का कथन वस्तु के एक धर्म तक ही सीमित है । अनेकान्तात्मक वस्तु के कथन की दो प्रकार की मर्यादा के कारण स्याद्वाद और नय का भिन्न-भिन्न निरूपण कथन की दो प्रकार की मर्यादा के कारण स्याद्वाद और नय का भिन्न-भिन्न निरूपण है। 125 दार्शनिक जगत् को जैन दर्शन ने जो मौलिक एवं असाधारण देन दी है उसमें अनेकान्तवाद का सिद्धान्त सर्वोपरि है । अनेकान्तवाद जैन परम्परा की एक विलक्षण सूझ है, जो वास्तविक सत्य का साक्षात्कार करने में सहायक है। अनेकान्त का प्रतिपादक सिद्धान्त स्याद्वाद कहलाता है। 'स्याद्वाद' पद में दो शब्द है - स्याद् और वाद । स्यात् शब्द तिङन्त पद जैसा प्रतीत होता है किन्तु वास्तव में यह एक अव्यय है जो कथंचित, किसी अपेक्षा से, अमुक दृष्टि से इस अर्थ का द्योतक है। 126 'वाद' का अर्थ सिद्धान्त, मत या प्रतिपादन करना होता है। स्याद्वाद स्याद्वाद् पद का अर्थ हुआ सापेक्ष - सिद्धान्त, अपेक्षावाद, कथंचित्वाद या वह सिद्धान्त जो विविध दृष्टि बिन्दुओं से वस्तुतत्त्व का निरीक्षण-परीक्षण करता है। जैनाचार्यों ने स्याद्वाद को ही अपने चिन्तन का आधार बनाया है। चिन्तन की यह पद्धति हमें एकांगी विचार और निश्चय से बचाकर सर्वाङ्गीण विचार के लिए प्रेरित करती है और इसका परिणाम यह होता है कि हम सत्य के प्रत्येक पहलू से परिचित हो जाते हैं। वस्तुतः समग्र सत्य को समझने के लिए स्याद्वाद दृष्टि ही एकमात्र साधन है। स्याद्वाद पद्धति को अपनाये बिना विराट सत्य का साक्षात्कार होना सम्भव नहीं। जो विचारक वस्तु के अनेक धर्मों को अपनी दृष्टि से ओझल करके किसी एक ही धर्म को पकड़कर अटक जाता है वह सत्य को नहीं पा सकता । 1 27 इसलिए आ. समन्तभद्र ने कहा है, 'स्यात्' शब्द सत्य का प्रतीक है। 28 और इसी कारण जैनाचार्यों का यह कथन है कि जहाँ कहीं स्यात् शब्द का प्रयोग न दृष्टिगोचर हो वहां भी उसे अनुस्यूत ही समझ लेना चाहिये। 129 स्याद्वाद जैन दर्शन की एक अन्यतम विशेषता है। स्याद्वाद के अभाव में जैन दर्शन की कल्पना भी कठिन है। एक आचार्य ने जैनधर्म का लक्षण ही यह दिया है

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