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2. नि:कांक्षित +1
जैन दर्शन के अतिरिक्त अन्य दर्शनों के आडम्बर वैभवादि से आकर्षित होकर उन्हें स्वीकार करने की इच्छा न करना तथा अपने धर्माचरण के फलस्वरूप इस लोक अथवा परलोक के भौतिक सांसारिक सुखों की इच्छा न करना ही नि:कांक्षित है। अर्थात् भोगों की इच्छा न करना ही निष्कांक्षित है। 42
जैन दर्शन के परिप्रेक्ष्य में आदिपुराण
3. निर्विचिकित्सा +3
धर्म का आचरण करके धर्म के फल में सन्देह न करना कि मुझे धर्म या पुण्य कार्य से लाभ होगा या नहीं तथा रत्नत्रय की आराधना करने वाले शुचिभूत पवित्र साधुओं के मैले वस्त्रों व शरीर को देखकर घृणा न करना एवं देव - गुरु-धर्म की निन्दा न करना ही सम्यक्त्व का तीसरा अंग निर्विचिकित्सा है। 44
4. अमूढदिट्ठि 15 ( अमूढदृष्टि )
अमूढदृष्टि का अभिप्राय है - मोहमुग्ध दृष्टि या विश्वास न रखना। मूढ़ता का अर्थ मुग्धता अथवा मूर्खता दोनों ही हैं। सांसाराभिनन्दी जीव अनेक मूर्खताओं में मुग्ध बना रहता है। उनमें से कुछ प्रमुख मूढ़ताएँ इस प्रकार है(क) देवमूढ़ता
राग द्वेष सहित देवता की उपासना करना देव मूढ़ता है और देवों के निमित्त हिंसादि पाप करना ये भी देवमूढ़ता है।
(ख) गुरुमूढ़ता
जिन साधकों का आचार पतित हो गया है, ऐसे साधुओं को गुरु मानना गुरुमूढ़ता है।
(ग) लोक मूढ़ता
लोक प्रचलित कुप्रथाओं, कुरूढ़ियों को धर्म समझकर पालन करना लोक मूढ़ता है। जैसे- गंगा में स्नान करने से पाप धुल जाते हैं आदि ऐसा विचार करना लोक मूढ़ता कही जाती है। 46
तत्त्वार्थ सूत्र में इसके अतिरिक्त दो मूढ़ताओं का भी वर्णन हुआ है।
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1. शास्त्र मूढ़ता हिंसा करना, भोगों में आसक्त होना, जुआ, चोरी, राग-द्वेषवर्धक असत्य कल्पना वाले ग्रन्थों को धर्मशास्त्र मानकर उस पर आचरण करना शास्त्र मूढ़ता है।