Book Title: Jain Darshan Ke Pariprekshya Me Aadipuran
Author(s): Supriya Sadhvi
Publisher: Bharatiya Vidya Prakashan
View full book text
________________
आदिपुराण में ईश्वर सम्बन्धी विभिन्न धारणाये और रत्नत्रय विमर्श 343
-गो.सा. (जी.का.) गा. 68
21. अष्टविधकर्मविकलाः शीतीभूता निरंजना नित्याः।
अष्टगुणा कृतकृत्या लोकाग्रनिवासिनः सिद्धाः।। 22. रत्न.श्रा. गा. 134 23. क्षायिकानन्तदृग्बोधसुखवीर्यादिभिर्गुणैः।
युक्तोऽसौ योगिनां गम्यः सूक्ष्मोऽपि व्यक्तलक्षणः।
- आ.पु. 21.114; त.सू. - (के.मु.) 10.4 (वि)
- आ.पु. 20.265
24. अनन्तज्ञानदृग्वीर्य विरतिः शुद्धदर्शनम्। 25. त.सू. (के.मु.) 10.4 (वि.) 26. आ.पु. 20.265 27. त.सू. (के.मु.) 10.4 (वि.) 28. वही। 29. वही। 30. वही। 31. वही। 32. त.सू. (के.मु.) 10.4 (वि.) 33. आ.पु. 20.265 34. त.सू. (के.मु.) 10.4 (वि.) 35. तदनन्तरमूर्ध्व गच्छत्यालोकान्तात्। 36. जै.त.प्र. - (आ.अ.ऋ.) पृ. 112-113 37. त.सू. (के.मु.) - 10.7 (वि.)
- त.सू. 10.5

Page Navigation
1 ... 382 383 384 385 386 387 388 389 390 391 392 393 394