Book Title: Acharanga Stram Part 01
Author(s): Shilankacharya
Publisher: Shravak Hiralal Hansraj
View full book text
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
आचा०
सूत्रम
॥१८९॥
१८९॥
चितवना करीए, त्यारे छेल्ली अर्धी गाथाथी बताये छे. निरंतर प्रसभावथी जीवो रहे छे कारण के एक जीव त्रस भावे जघन्यथी अंतर्मुहुर्त रहीने फरीथी पृथ्विकाय विगेरे एकेन्द्रियमा उत्पन्न थाय छे ते प्रकर्षथी बेहजार सागरोपमथी अधिक त्रस भावे निरंतर रहे छे. आ प्रमाणे प्रमाणद्वार पुरुं ययुं, हवे उपभोगद्वार, शख, वेदना ए त्रण द्वार प्रतिपादन करवाने कहे छे. मसाईपरिभोगो सत्थं सत्थाइयं अणेगविहं । सारीरमाणसा वेयणा य दुविहा बहुविहाय ॥ १६०॥ दारं ॥
मांस, चामडी, बाळो; रुवां, नख, पीछां, नाडीओ, हाडका, शीगडा, विगेरेमा त्रसकायना अंगोनो उपभोग याय छे अने शस्त्र ते खा तोमर, छरी, पाणी, अग्नि. विगेरे सकायनां शस्त्र ते अनेक प्रकारनां छे अने ते सकाय, परकाय तथा मिश्र तथा द्रव्य अने भाव एम भेदथी अनेक प्रकारनां छे. तेनी वेदना अहि प्रसंग होगाथी कदेवाय छे, आ वेदना शरीरथी अने मनथी उत्पन्न थवानो संभव छे. शरीर वेदना शल्य, सळी, विगेरेना वागवाथी थाय छे; अने मननी वेदना वहालानो वियोग अने प्रतिकुळनो संयोग विगेरेथी थाय के, अनेक प्रकारना ताब, अतिसार, खांसी श्वास भगंदर, मथानो रोग, शूल, मसा विगेरेथी उत्पन्न थयेली तीव होय हे, फरीने उपभोगनो विस्तार करचानी इच्छाथी कहे छे. मंसस्स केइ अट्टा केइ चम्मस्स केइ रोमाणं । पिच्छाणं पुछाणं देतीणऽहा वहिजंति ॥ १६१ ॥ केइ बहंति अट्टा, केइ अणटा पसंगदोसेणं । कम्मपसंगपसत्ता, बंधति वहंति मारंति ॥ १६२ ॥
डरावन्द्र
For Private and Personal Use Only

Page Navigation
1 ... 181 182 183 184 185 186 187 188 189 190 191 192 193 194 195 196 197 198 199 200 201 202 203 204 205 206 207 208 209 210 211 212 213 214