Book Title: Acharanga Stram Part 01
Author(s): Shilankacharya
Publisher: Shravak Hiralal Hansraj

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Page 203
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir आचा० सुत्रम ॥२०॥ ॥२०९॥ गवाईं सम्यकदर्शनज्ञान, चरणनो समुदाय कहेवाय ते शान्ति छ कारण के ते निराबाध मोक्ष नामनी शांतिने आफ्नार के तेवी शांतिने प्राप्त बयेला अथवा शांतिमा रहेला ते शांतिगत जीवों तथा द्रविका, एटले रागद्वेषयी मुकाएलाछे, तेमां व ते सं. यम सत्तर भकारनो छे, कारण के जे कठिन कर्म छे, नेने गाळवाना हेतुरुपे ते द्रवरूप संयमने धरे ते द्रविक छ, तेश्रो जीनितने धारण करवाने इच्छता नथी, के अमे वायुकायने दुःख दइने जीवीए, (दुःख भोगवीए, पर कबुल करीए, पण वायुने पीडा न आपीए) तेज प्रमाणे पूर्वे कहेला प्रमाणे पृथिवीकाय विगेरेनी पण अमे रक्षा करीमु, समुदाय अर्थ आ प्रमाणे छे, आ जैन प्रवचनमा जे संयम छे तेनी अंदर जे रहेला छे, तेभोज रागद्वेष रुप जे ऊंचा प्राडो छ, तेने मूळथी उखेडनाग छ, अने तेभोज परभूत (अन्य जीवो) ने दुःख दा मुखथी जीवधानी इच्छा रहित साधुभी छे. पण अन्यत्र नधी कारण के आगे क्रियाना धोधनो बीजे अभाव छे; आ प्रमाणे यये छने-- लज्जमाणे पुढो पास अणगारा मोत्ति एगे पवयमाणा जमिणं विरूबरूवेहि सत्थेहिं बाउकम्मसमारंभेणं वाउसस्थं समारंभमाणे अण्णे अणेगरूवे पाणे विहिंसति । तत्थ खलु भगवया परिण्णा पवे. इया । इमस्स चेव जीवियस्स परिवंदणमाणणपूयणाए जाईमरणमोयणाए दुक्खपडियायहेडं से सयमेव वाउसत्यं समारभति अण्णेहि वा वाउसत्थं समारंभावेइ अण्णे वाउसस्थं समारंभंते समणु For Private and Personal Use Only

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