Book Title: Acharanga Stram Part 01
Author(s): Shilankacharya
Publisher: Shravak Hiralal Hansraj

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Page 204
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra आचा० ॥२१०॥ www.kobatirth.org जाणति, तं से अहियाए तं से अबोहीए, से तं संबुज्झमाणे आयाणीयं समुहाए सोचा भगवओ अणगाराणं अंतिए, इहमेगेसिं णायं भवति - एस खलु गंधे एस खलु मोहे एस खलु मारे एस खलु रिए, इत्थं गहिए लोए जमिणं विरूवरूवेहिं सत्थेहिं वाउकम्मसमारंभेणं वाउसत्थं समारं माणे अपणे अणेrरूवे पाणे विहिंसति ( सू० ५८ ) से बेमि संति संपाइमा पाणा आहच्च संपयंति य फरिसं च खलु पुट्ठा एगे संघायमात्रजंति, जे तत्थ संघायमावति ते तत्थ परियावज्जंति, जे तत्थ परियावज्जंति ते तत्थ उद्दायंति, एत्थ सत्यं समारभमाणस्स इच्चे आरंभा अपरिष्णाया भवंति, एत्थ सत्थं असमारभमाणस्त इच्चते आरंभा परिणाया भवंति तं परिण्णाय मेहावी णेत्र सयं वाउसत्थं समारंभेज्जा वऽण्णेहिं वाउसत्थं समारंभावेजा व वाउसत्थं समारंभंते समणुजाणेज्जा, जस्सेते वाउसत्थसमारंभा परिण्णाया भवंति से हु मुणी परिण्णायकम्मे ( सू० ५९ ) तिबेमि पूर्वमा सूत्रार्थ है, हवे छ जीवनिकायमा विषयमा वध करनाराओने अपाय दुःख) बतावीने जीवोने तेनुं दुःख न देनारा ओने For Private and Personal Use Only Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सूत्रम् ॥२१०॥

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