Book Title: Sagarotpatti
Author(s): Suryamal Maharaj
Publisher: Naubatrai Badaliya

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Page 34
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ( २६ ) सकता है कि जगच्चन्द्र जो के शिष्योंने श्री चैत्रवाल गच्छीय देवभद्र गुरू नाम छिपालिया हो उससे इनको गुरू परम्परा नहो मिलती। अब इसको अनिश्चित पर पूर्व को कथावलिको सन्मु. ख रख पाठक स्वयं ही विचार करें-निर्णय करें सत्य कोन है और असत्य कौन ? तत्पश्चात्, जगचन्द्रजो ने स्वशिष्य वृन्दोंको स्वगुरू भाई श्री देवेन्द्र सूरिजी के हवाले किया और स्वगंगापो हुए। शिष्य पण्ड नो, देवेन्द्र जो यति को गुरूमान सेवा करने लगा। श्री देवेन्द्रनो के स्वगा रोहनके बाद इन्होंने श्री विन येन्द्रजा को सेवा को। श्री विजयेन्द्र सरिके सम्मान पूर्वक पालन करनेपर भो शिष्योंने उनको प्राधोनना स्वीकार न को। तत्पश्चात्, शिष्योंने भेदान्पत हो वृद्ध २ पतियोंको । स्वाधीनता स्वीकार कर विजयेन्द्र सूरिके गच्छका परित्याग किया। श्री देवेन्द्र सरिके पट्ट पर श्री वर्म रूचि जी ने गद्दा पाई। ये धर्म घोष नापसे जगत् मान्य ओर सर्व प्रिय हुए। इसके बाद उस गच्छसे अलग हो, स्वगक्छ की स्थापना कर इन्होंन श्री विजयेन्द्र सूरि को शठवत् उस शिष्य पण्डला महोद्धत हो स्वकल्पित पहाबलीमें त्री विनयेन्द्र जो की निन्दात्मक तथा आत्मोत्कर्ष सापक आलोचना For Private And Personal Use Only

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