Book Title: Sagarotpatti
Author(s): Suryamal Maharaj
Publisher: Naubatrai Badaliya

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Page 40
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir हैं। रथ और घोड़की सवारी किया करते हैं । बाएव, ये सप. रिग्रही हैं । इस प्रकार इन्होंने सबसे अपनी प्रशंसा और गुरु तथा यतियोंकी निन्दा की। तबसे सागरिका शाखा अलग हुई। इन्होंने धर्म सागरजी से छिपाकर अपने कर्मानुसार गोर खोदिया, काका, उलूक और तपादि शाखाओंका निर्माण किया। नीच जातियों भी इन शाखाओंमें प्रविष्ट हो सकती थीं। मेधातिथि नामक कोई दुर्जन था। किसी कारणवश वह उस गच्छसे बाहर कर दिया गया। वह विजयदान सरिजीका शिष्य हुआ। कुछ दिनोंके वाद उसका नाम धर्मसागर पड़ा। वह सब का विरोधी तथा गुर्वाज्ञा उलङ्घनकारी हुआ। जिनाज्ञा पालक गच्छोंको परित्याग कर इसने कूयुक्तिसे अपने मूलका खण्डन करके तपा नामक शाखाका निर्माण किया । स्वेच्छाचारसे, इस ने, व्यर्थही उत्सूत्रादि बनाने के दोषसे दूसरे गच्छोंको दूषितकर बिजय शाखाको भी दूषित किया। विजयदान सूरिजीके मना करने पर भी लोभग्रस्त हो इसने उत्सूत्रादिका बनाना बन्द न किया। धर्म सागर-रचित ग्रन्थों का जो पाठ करते हैं अथवा सुनते हैं। उन्हें जिनाज्ञा-भङ्गका दोष लगता है और वे गुरु द्रोही कहे जाते हैं। उचित तो यह होता कि उन ग्रन्थों को जलमें डुबो देते। तभी शान्ति प्राप्ति हो सकती थी। किसी समय गुजरातके बन्दासन ग्राममें किसी सरिने इन्हे गधेपर चढ़बाकर ग्रामकी प्रदक्षिणा करवाई। ज्यों हो अपने गण का परित्याग कर ये भागे जा रहे थे। ल्हो यवन नपति द्वारा For Private And Personal Use Only

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