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( ३० )
की। तंपके प्रभावसे विजयेन्द्र सूरिको वृहदशाखा हुई और जगचन्द्र के शिष्योंकी लघु । पुनः इन्होंने स्वकल्पित पट्टाबल में लिखा है कि देवेन्द्र सूरिकी लघु शाखा हुई । जगचंद्रके शिष्योंकी नहीं। क्या सत्यवादियों के लिये यही सत्य है ?
देवेन्द्र, क्षेम, कीर्त्यादि सूरियोंने शास्त्रोंमें केवल प्रशंसा को है । उन्होंने आप सदृश किसी भी स्थानपर किसीकी निन्दा नहीं की है। आपके कथनों में केवल भेदी प्रदीप्त होता है। मिल्लत नहीं ।
धर्मघोष जी ने अपने मत की रक्षाके लिये अन्य दुर्गति मदायक, उग्र स्वभाविक मंत्रोंका आराधना की । इन्होंने बहुत प्रयत्न से मारा, मोहन, उच्चाटन तथा वशो करणादि मंत्रोंकी साधना की । इन्हीं मन्त्रोद्वारा इन्होने चैत्र वाल गच्छीय संघ को संतप्त किया । संघको संतापित करने से ही इनका ( इनलोगोंका) नाम तपागच्छ पड़ा । यानवाही तथा परिग्रही होने पर भी इनके वर्गों ने अपने यतित्व को संसार में प्रसिद्ध किया ।
परम्परासे महावीर स्वामी द्वारा हमने हो पट्टावलि प्राप्त की है चैत्रगण वालेनि नहीं। इस प्रकार घोषित करने में वे जरा भी लज्जित नहीं होते। क्योंकि
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