Book Title: Sagarotpatti
Author(s): Suryamal Maharaj
Publisher: Naubatrai Badaliya

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Page 36
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ( १ ) जिनको गरु परम्परा ही कल्पित है, जो किसी प्रकार सिद्ध नहीं हो सकता वह पट्टाधिकारी किस प्रकार हो सकता है ? इसका पाठक गण ही विचार करें। गणधीशोंसे बहिष्कृत हो, धर्म घोष जो के आश्रयमें रह कर इन्होंने अपनी परम्पराको उलटो सिद्धि की। उसी समय जगच्चन्द्र जी गुरू तुल्य हुए और वह श्री उद्योतन मुरिजीके स्थानापन्न हुए। मालम होता है उसी समय क्रियाथान कोई मणि रत्न नामक सूरि हुए। इसमें सन्देह करनेकी कोई गुञ्जाइस नहीं। क्योंकि एक नामके अनेकों व्यक्ति हो सकते हैं। धर्म घोषादिक सूरियों ने उसो मणि रत्न जो को लेकर अपनी गुरू परम्परा लिखो है। जगच्चन्द्र जो के स्वर्गरोहण पश्वात्, उपाध्याय देवभद्रजी देवेन्द्र जी तथा विजयेन्द्र जी भो शिष्य माने गए हैं। उसो समय उद्योतन सरि के संतान स्थानीय संविग्न उग्र विहारो यति हुए क्यों कि सभी क्रिया कुशली सुने जाते हैं। अतः वे दूसरे दीक्षा किस प्रकार ग्रहण कर सकते हैं ? दीक्षा ग्रहण करने से जिनचन्द्र जी इन्हीं के शिष्य हो जाते हैं, सो हो नहीं सकता। वे किसी दूसरे मणि रत्न के शिष्य होंगे। यदि इन्हें इसी मणि रल जी का शिष्य माना जाय तो भी युक्ति संगत प्रतीत नहीं होता। क्योंकि उनके परिवारों को परित्याग कर दूसरेको गुरु स्वीकार करना युक्ति For Private And Personal Use Only

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