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प्राचीन जैन इतिहास | ९१
सीताने भरतका अभिप्राय जान रामसे कहा कि नाथ ! मरत मन ही मन उदास हो रहा है । कहीं विरक्त न हो जाय । अतएव मेरे काका कनककी पुत्रीका स्वयंवर करके उसके द्वारा इनके गले में वरमाला डलवा देना उचित है । सीताका कथन सबने स्वीकार किया । तदनुसार कनकने अपनी पुत्री लोकसुंदरीका स्वयंवर किया । लोक सुंदरीने भरतके गलेमें वरमाला डाली । फिर सीता और लोकसुंदरीका क्रमशः राम और भरतके साथ विवाह हुआ ।
(११) जब इनके विवाह समाचार भटमंडलने सुने तब वह सीताको हरनेके लिये तत्पर हुआ । माता पिताने बहुत समझाया पर न माना और मंत्रीगण सहित अस्त्र शस्त्रोंसे सुसज्जित हो सीताको हरनेके लिये चला । जब वह उस स्थान पर आया जहां देव इसे जन्मते ही उठा कर रख गया था । भटमंडलको जाति स्मरण हुआ । उसने अपने पूर्बभव तथा वर्तमान भवके वृत्तांत जान लिये । जातिस्मरण होते ही भटमंडल मूर्छित हो गया । मंत्रीगण चंद्रगति के पास ले आये । जब भटमंडल मूर्छा - रहित हुआ तब उसने अपना सब वृत्तांत पिता से कहा और भगिनी सीता के साथ विवाह करनेकी अपनी इच्छाकी निंदा करने लगा । चंद्रगतिने संसारकी पापमय तथा भ्रमपूर्ण दशा देख तप करनेका निश्चय किया । और सर्वमूर्ति आचार्यके पास दीक्षा लेने आया । उस समय सर्वमूर्ति मुनि चातुर्मासके कारण अयोध्या के समीपवाले महेन्द्रोदय नामक वनमें आये हुए थे । चंद्रगति भी वहां आया । वहीं उसने दीक्षा ग्रहण की तथा भटमंडलको राज्य दिया और कहा कि तुम्हारे पूर्व माता-पिता तुम्हारे लिये दुःखी होंगे; तुम