Book Title: Prachin Jain Itihas Part 02
Author(s): Surajmal Jain
Publisher: Mulchand Kisandas Kapadia

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Page 156
________________ प्राचीन जैन इतिहाम। १४७ आर्यिकाके पास मुझे छुड़वाते । अस्तु, अब आप उचित समझें वह मेरी परीक्षा करलें। रामने आज्ञा दी कि सीता ! तुम रावणके गृहमें कई मासों तक रही हो अतएव तुम्हारी शील परीक्षाके अर्थ निर्धारित किया जाता है कि तुम अग्निमें प्रवेश करो । यदि तुम शीलवान् होगी तो अग्निसे तुम्हारी कुछ भी हानि नहीं होनेकी । सती, साध्वी सीताने यह परीक्षा देना स्वीकार किया। परन्तु दूसरे लोग इस कठिन परीक्षाको सुनते ही विलचित हो गये । और रामसे कहने लगे कि सीता पवित्र है । ऐसी कठिन परीक्षा लेना उचित नहीं; पर रामने नहीं माना । तब तीनसौ हाथ लम्बा-चौड़ा अग्निकुण्ड बनाया गया । (३) उसी रात्रिको सकल-भूषण मुनिके कैवल्य ज्ञानकी पूनाऽर्थ इन्द्र जा रहे थे । मार्गमें अग्निकुण्डका आयोजन देख मेघकेतु नामक देवने इन्द्रसे कहा कि, देखिए ! पतिव्रता, परम शीलवान् सीताकी परीक्षाके लिये यह प्राणघाती भयङ्कर आयोजन हो रहा है । इससे सीताकी रक्षा करना उचित है । इन्द्रने कहा कि मैं केवलज्ञानकी पूजाऽर्थ जाता हूं, तुम सीताकी रक्षा करो । तब वह देव वहीं ठहर गया। (३) जब अग्निकुण्डमें चन्दनादिके द्वारा भयानक अग्नि प्रज्वलित हो गई, जिसे देख सीताके भविष्यकी लोगोंको चिन्ता होने लगी और बड़े २ धीर वीरोंका धैर्य च्युत हुआ । राम, लक्ष्मण तक रोने लगे, तब सीताने पञ्च परमेष्ठीका स्मरण कर धैर्य युक्त मुद्रासे गम्भीर स्वरमें कहा कि यदि मैंने मनसे, वचनसे, कायासे

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