Book Title: Prachin Jain Itihas Part 02
Author(s): Surajmal Jain
Publisher: Mulchand Kisandas Kapadia

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Page 166
________________ प्राचीन जैन इतिहास। १५७ नाम उत्त'पुर ण नहीं है । राजा जनक मिथिलाके राना थे, रानीका नाम वसुधा था । इनकी पुत्रीका नाम सीता था । वह जब युवा हुई तब अनेक राजाओंने उसे मांगा, पर जनकने कहा कि मैं उसे ही दूंगा जिसका दैव अनुकूल होगा । एक दिन नाजा जनकने सभामें कहा कि सगर, सुलमा, विश्वासु जि । यज्ञके कारण स्वर्गमें गये हैं अपनेको भी वह यज्ञ करना चाहिये । इस पर कुशलमति नापतिने कहा कि इस कार्यमें नागकुमार जातिके देव परस्पर मत्सरताके कारण विघ्न डाला करते हैं । और विद्याधरोंके आदि पुरुष नमि, विनमि पर नागकुमारके अहमिंद्रका उपकार है इसलिये वे भी उनकी सहायता करेंगे । यज्ञकी नवीन पद्धति महाकाल नामक असुरने चलाई है उसके शत्रु भी विघ्न करेंगे इसलिये इस कार्य में बलवान सहायकोंकी आवश्यकता है। यदि दशस्थके पुत्र राम लक्ष्मण सहायक हो जावे तो यह कार्य हो सकता है। उन्हें आप यदि सीता देना स्वीकार करेंगे तो वे अवश्य रहायक होंगे । जनकने दशरथको इसी अभिप्रायका पत्र लिखा । तथा अन्य राजकुमारों को भी बुलाया । दशरथने सभामें पूछा तब आगमसार नामक मंत्रीने यज्ञका समर्थन किया और कहा कि राम लक्ष्मणको यज्ञकी सहायतार्थ भेजनेसे दोनों भाइयोंकी अच्छी गति होगी। परन्तु अतिशयमति मंत्रीने इसका विरोध किया कि यज्ञ करनेसे धर्म नहीं होता। महाबल सेनापतिने कहा कि यज्ञमें पाप हो अथवा पुण्य इससे हमें प्रयोजन नहीं । हमें अपने कुमारों का प्रभाव रानाओंमें प्रगट करना चाहिये । दशरथने कहा कि यह विचारणीय बात है।

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