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नियमसार अनुशीलन चौथा छन्द इसप्रकार है -
. (स्रग्धरा) सानन्दं तत्त्वमञ्जञ्जिनमुनिहृदयाम्भोजकिंजल्कमध्ये निर्व्याबाधं विशुद्धं स्मरशरगहनानीकदावाग्निरूपम् । शुद्धज्ञानप्रदीपप्रहतयमिमनोगेहघोरान्धकारं तद्वन्दे साधुवन्द्यंजननजलनिधौलंघने यानपात्रम् ॥१७४।।
(रोला) आत्मतत्त्व में मग्न मुनिजनों के मन में जो।
वह विशुद्ध निर्बाध ज्ञानदीपक निज आतम॥ मुनिमनतम का नाशक नौका भवसागर की।
साधुजनों से वंद्य तत्त्व को वंदन करता ।।१७४।। जो आत्मतत्त्व आत्मतत्त्व में मग्न मुनिराजों के हृदयकमल की केशर में आनन्द सहित विराजमान है, बाधा रहित है, विशुद्ध है, कामबाणों की गहन सेना को जला देने में दावाग्नि के समान है और जिसने शुद्ध ज्ञानरूप दीपक द्वारा मुनियों के मनरूपी घर के घोर अंधकार का नाश किया है; जो साधुओं द्वारा वंदनीय और जन्म-मरणरूपी भवसागर को पार करने में नाव के समान है; उस शुद्ध आत्मतत्त्व को मैं वंदन करता हूँ।
गुरुदेवश्री उक्त छन्द का भाव इसप्रकार स्पष्ट करते हैं -
"अनन्तकाल से इस अज्ञानी जीव ने अपने शुद्ध अन्तःतत्त्व का कभी अनुभव नहीं किया। आचार्यदेव कहते हैं कि अन्तःतत्त्व को जानकर उसकी रुचि किये बिना उसमें लीनता नहीं होती और लीनता बिना मुक्ति नहीं होती; इसलिए सर्वप्रथम अपने अन्तर में अपने निजस्वरूप परमात्मशक्ति का विश्वास करना चाहिए। निजस्वरूप के विश्वास के जोर से भवसमुद्र तिरा जा सकता है। निजपरमात्मतत्त्व भवसमुद्र को तैरने के लिए नौका समान है - ऐसे परमात्मतत्त्व की यहाँ वंदना की गई है। १. नियमसार प्रवचन, पृष्ठ ९५२