Book Title: Klesh Rahit Jivan
Author(s): Dada Bhagwan
Publisher: Mahavideh Foundation

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Page 21
________________ ३. दुःख वास्तव में है? ४. फ़ैमिलि आर्गेनाइजेशन दादाश्री : दुःख उसकी मान्यता में से गया नहीं न? आप मुझे धौल मारो तो मुझे दुःख नहीं होगा, परन्तु दूसरे को तो उसकी मान्यता में धौल से दु:ख है, इसीलिए उसे मारोगे तो उसे दुःख होगा ही। रोग बिलीफ़ अभी तक गई नहीं है। कोई हमें धौल मारे तो हमें दुःख होता है, उस लेवल से देखना चाहिए। किसी को धौल मारते समय मन में आना चाहिए कि मुझे धौल मारे तो क्या हो? हम किसी के पास से रुपये दस हज़ार उधार ले आए, फिर अपने संजोग पलट गए, इसलिए मन में विचार आए कि पैसे वापिस नहीं दूं तो क्या होनेवाला है? उस घड़ी हमें न्याय से जाँच करनी चाहिए कि 'मेरे यहाँ से कोई पैसे ले गया हो और मुझे वापिस न दे तो क्या होगा मुझे?' ऐसी न्यायबुद्धि चाहिए। ऐसा हो तो मुझे बहुत ही दु:ख होगा। इसी प्रकार सामनेवाले को भी दुःख होगा। इसलिए मुझे पैसे वापिस देने ही हैं।' ऐसा निश्चित करना चाहिए और ऐसा निश्चित करो तो फिर दे सकोगे। प्रश्नकर्ता : मन में ऐसा होता है कि ये दस करोड़ का आसामी है, तो हम उसे दस हजार नहीं दें तो उसे कोई तकलीफ नहीं होगी। दादाश्री : उसे तकलीफ नहीं होगी, ऐसा आपको भले लगता हो, पर वैसा है नहीं। वह करोड़पति, उसके बेटे के लिए एक रुपये की वस्तु लानी हो तब भी सोच-समझकर लाता है। किसी करोड़पति के घर आपने पैसे इधर-उधर रखे हुए देखे हैं? पैसा हरएक को जान की तरह प्यारा होता है। अपने भाव ऐसे होने चाहिए कि इस जगत् में अपने मन-वचनकाया से किसी जीव को किंचित् मात्र दु:ख न हो। प्रश्नकर्ता : पर उस तरह से सामान्य मनुष्य को अनुसरण करना मुश्किल पड़ता है न? दादाश्री : मैं आपको आज ही उस प्रकार का वर्तन करने का नहीं कहता हूँ। मात्र भावना ही करने को कहता हूँ। भावना अर्थात् आपका निश्चय। यह तो कैसी लाइफ? 'फैमिलि आर्गेनाइजेशन' का ज्ञान है आपके पास? हमारे हिन्दुस्तान में 'हाउ टु आर्गेनाइज़ फ़ैमिलि' वह ज्ञान ही कम है। फ़ॉरेनवाले तो फ़ैमिलि जैसा समझते ही नहीं। वे तो जेम्स बीस साल का हुआ, तब उसके माँबाप विलियम और मेरी, जेम्स से कहेंगे कि 'तु तेरे अलग और हम दो तोता-मैना अलग!' उन्हें फ़ैमिलि आर्गेनाइज़ करने की बहुत आदत ही नहीं न? और उनकी फैमिलि तो साफ साफ ही कह देती है। मेरी के साथ विलियम को नहीं जमा, तब फिर डायवोर्स की ही बात ! और हमारे यहाँ तो कहाँ डायवोर्स की बात? अपने तो साथ-साथ ही रहना है, कलह करना और वापिस सोना भी वहीं पर, उसी रूम में ही! यह जीवन जीने का रास्ता नहीं है। यह फ़ैमिलि लाइफ नहीं कहलाती। अरे! अपने यहाँ की बुढ़ियाओं को जीवन जीने का तरीक़ा पूछा होता तो कहतीं कि आराम से खाओ-पीओ, जल्दबाजी क्यों करते हो? इन्सान को किस चीज़ की नेसेसिटी है, उसकी पहले जाँच करनी पड़े। दूसरी सब अन्नेसेसिटी। वे अननेसेसिटी की वस्तुएँ मनुष्य को उलझाती हैं, फिर नींद की गोलियाँ खानी पड़ती हैं। ये घर में किसलिए लड़ाइयाँ होती हैं? बच्चों के साथ क्यों बोलाचाली हो जाती है? वह सब जानना तो पडेगा न? यह लडका सामने बोले और उसके लिए डॉक्टर को पूछे कि कछ बताइए. पर वह क्या दवाई बताए? उसकी ही पत्नी उसके सामने बोलती हो न! यह तो सारी जिन्दगी रूई का सर्वे करता है, कोई लौंग का सर्वे करता है, कुछ न कुछ सर्वे करते हैं, पर अंदर का सर्वे कभी भी नहीं किया।

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