Book Title: Klesh Rahit Jivan
Author(s): Dada Bhagwan
Publisher: Mahavideh Foundation

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Page 47
________________ ८० ५. समझ से सोहे गृहसंसार फजीता करवाती रहती है, तब तेरह सौ रानियों में कब पार आए? अरे, एक रानी जितनी हो तो महामुश्किल हो जाता है! जीती ही नहीं जाती। क्योंकि मतभेद पड़े कि वापिस गड़बड़ हो जाती है! भरत राजा को तो तेरह सौ रानियों के साथ निभाना होता था। रनिवास से गुजरें, तो पचास रानियों के मुँह चढ़े हुए होते। अरे, कितनी तो राजा का काम तमाम कर देने के लिए घूमती थीं! मन में सोचती कि फलानी रानियाँ उनकी खुद की हैं और ये परायी। इसलिए रास्ता कुछ करें। कुछ करें, वह राजा को मारने के लिए, परन्तु वह रानियों को प्रभावहीन करने के लिए। राजा के ऊपर द्वेष नहीं, परन्तु उन दूसरी रानियों पर द्वेष है। परन्तु उसमें राजा तो गया और तू भी तो विधवा होगी न? तब कहे कि 'मैं विधवा होऊँगी पर उसे भी विधवा कर दूं तब सही!' यह हमें तो सारा तादृश्य दिखा करता है। ये भरत राजा की रानी का तादृश्य हमें दिखा करता है कि उन दिनों कैसे मुँह चढ़ा हुआ होगा! राजा कैसा फँसा हुआ होगा? राजा के मन में कैसी चिंताएँ होगी, वह सभी दिखता है! एक रानी का यदि तेरह सौ राजाओं के साथ विवाह हुआ हो तो राजाओं का मुँह नहीं चढ़ता। पुरुष को मुँह चढ़ाना आता ही नहीं। आक्षेप, कितने दुःखदायी! सब ही तैयार है, परन्तु भोगना आता नहीं है। भोगने का तरीका आता नहीं है। मुंबई के सेठ बड़े टेबल पर खाना खाने बैठते हैं, पर खाना खाने के बाद, आपने ऐसा किया, आपने वैसा किया, मेरा दिल तू जलाती रहती है बिना काम के। अरे बगैर काम के तो कोई जलाता होगा? न्यायपूर्वक जलाता है। बिना न्याय के तो कोई जलाता ही नहीं। ये लकड़ी को लोग जलाते हैं, पर लकड़ी की अलमारी को कोई जलाता है? जो जलाने का हो उसे ही जलाते हैं। ऐसे आक्षेप देते हैं। यह तो भान ही नहीं है। मनुष्यपन बेभान हो गया है, नहीं तो घर में तो आक्षेप दिए जाते होंगे? पहले के समय में घर के व्यक्ति एक-दूसरे पर आक्षेप लगाते नहीं थे। अरे, लगाना हो तब भी नहीं लगाते थे। मन में ऐसा समझते थे कि आक्षेप लगाऊँगा क्लेश रहित जीवन तो सामनेवाले को दुःख होगा, और कलियुग में तो चपेट में लेने को घूमते हैं। घर में मतभेद क्यों होना चाहिए? खड़कने में, जोखिमदारी खुद की ही प्रश्नकर्ता : मतभेद होने का कारण क्या है? दादाश्री : भयंकर अज्ञानता! अरे संसार में जीना नहीं आता, बेटे का बाप होना नहीं आता, पत्नी का पति होना नहीं आता। जीवन जीने की कला ही आती नहीं। यह तो सुख होने पर भी सुख भोग नहीं सकते है। प्रश्नकर्ता : परन्तु बरतन तो घर में खड़केंगे न? दादाश्री : बरतन रोज-रोज खड़काना किसे रास आएगा? यह तो समझता नहीं, इसीलिए रास आता है। जागृत हो, उसे तो एक मतभेद पड़े तो सारी रात नींद ही नहीं आए! इन बरतनों को (मनुष्यों को) स्पंदन हैं, इसलिए रात को सोते-सोते भी स्पंदन किया करता है, ये तो ऐसे हैं, टेढ़े हैं, उल्टे हैं, नालायक हैं, निकाल देने जैसे हैं ! और उन बरतनों को कोई स्पंदन है? हमारे लोग समझे बिना हाँ में हाँ मिलाते हैं कि दो बरतन साथ में हो तो खड़केंगे! घनचक्कर, हम क्या बरतन हैं? यानी हमें खड़कना चाहिए? इन 'दादा' को किसी ने कभी भी खड़कते हुए देखा नहीं होगा! सपना भी नहीं आया होगा ऐसा!! खड़कना किसलिए? यह खड़कना तो अपनी खुद की जोखिमदारी पर है। खड़कना क्या किसी और की जोखिमदारी पर है? चाय जल्दी आई नहीं हो तो हम टेबल को तीन बार ठोकें तो जोखिमदारी किसकी? इसके बदले तो हम बुद्ध बनकर बैठे रहें। चाय मिली तो ठीक, नहीं तो देखेंगा ऑफिस में। क्या बुरा है? चाय का भी कोई काल तो होगा न? यह जगत् नियम के बाहर तो नहीं होगा न? इसलिए हमने कहा है कि 'व्यवस्थित'। उसका टाइम होगा तब चाय मिलेगी, आपको ठोकना नहीं पड़ेगा। आप स्पंदन खड़े नहीं करोगे तो वह आकर खड़ी रहेगी, और स्पंदन खड़े करोगे तब भी आएगी। परन्तु स्पंदन के, वापिस वाइफ के खाते में हिसाब जमा होगा कि आप उस दिन टेबल ठोक रहे थे न!

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