Book Title: Klesh Rahit Jivan
Author(s): Dada Bhagwan
Publisher: Mahavideh Foundation

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Page 25
________________ ३६ क्लेश रहित जीवन ४. फैमिलि आर्गेनाइजेशन प्रश्नकर्ता : पर देर से उठने में डिसिप्लिन नहीं रहता है न? दादाश्री : यह देर से उठता है इसीलिए आप कलह करो, वह ही डिसिप्लिन नहीं है। इसीलिए आप कलह करना बंद कर दो। आपको जोजो शक्तियाँ माँगनी हों, वे इन दादा के पास से रोज़ सौ-सौ बार माँगना, सब मिलेंगी। अब इन भाईसाब को समझ में आया इसलिए उन्होंने तो हमारी आज्ञा पालकर भतीजे को घर में सभी ने कुछ भी कहने का बंद कर दिया। हफ्ते के बाद परिणाम यह आया कि भतीजा अपने आप ही सात बजे उठने लग गया और घर में सबसे ज्यादा अच्छी तरह काम करने लग गया। सुधारने के लिए 'कहना' बंद करो इस काल में कम बोलना, उसके जैसा कुछ भी नहीं है। इस काल में बोल पत्थर जैसे लगें, ऐसे निकलते हैं, और हरएक का ऐसा ही होता है। इसीलिए बोलने का कम कर देना अच्छा। किसी को कुछ भी कहने जैसा नहीं है। कहने से अधिक बिगड़ता है। उसे कहें कि गाड़ी पर जल्दी जा, तो वह देर से जाता है। और कुछ न कहें तो टाइम पर जाता है। हम नहीं हों तो सब चले ऐसा है। यह तो खुद का झूठा अहंकार है। जिस दिन से बच्चों के साथ कच-कच करना आप बंद करोगे उस दिन से बच्चे सुधरेंगे। आपके बोल अच्छे नहीं निकलते, इसीलिए सामनेवाला चिढ़ता है। आपके बोल वह स्वीकारता नहीं है, उल्टे वे बोल वापिस आते हैं। हम तो बच्चे को खाने का, पीने का बनाकर दें और अपना फ़र्ज पूरा करें, दूसरा कुछ कहने जैसा नहीं है। कहने से फायदा नहीं. ऐसा आपका सार निकलता है न? बच्चे बड़े हुए हैं, वे क्या सीढ़ियों पर से गिर जाते हैं? आप अपना आत्मधर्म किसलिए चूकते हो? ये बच्चों के साथ का तो रिलेटिव धर्म है। वहाँ बेकार माथाकूट करने जैसा नहीं है। कलह करते हो, उससे तो मौन रहोगे तो अधिक अच्छा रहेगा। कलह से तो खुद का दिमाग बिगड़ जाता है और सामनेवाले का भी बिगड़ जाता है। प्रश्नकर्ता : बच्चे उनकी जिम्मेदारी समझकर रहते नहीं है। दादाश्री : जिम्मेदारी 'व्यवस्थित' की है, वह तो उसकी जिम्मेदारी समझा हुआ ही है। आपको उसे कहना, आया नहीं इसीलिए गड़बड़ होती है। सामनेवाला माने, तब हमारा कहा हुआ काम का। यह तो माँ-बाप बोलते हैं पागल जैसा, फिर बच्चे भी पागलपन ही करेंगे न। प्रश्नकर्ता : बच्चे तुच्छता से बोलते हैं। दादाश्री : हाँ, पर वह आप किस तरह बंद करोगे? यह तो आमनेसामने बंद हो न तो सबका अच्छा होगा। एक बार मन विषैला हो गया, फिर उसकी लिंक शुरू हो जाती है। फिर मन में उसके लिए ग्रह बंध जाता है कि यह आदमी ऐसा ही है। तब हमें मौन लेकर सामनेवाले को विश्वास में लेने जैसा है। यह बोलते रहने से किसी का सुधरता नहीं। सुधारने का तो 'ज्ञानी पुरुष' की वाणी से सुधरता है। बच्चों के लिए तो माँ-बाप की जोखिमदारी है। हम नहीं बोलें, तो नहीं चलेगा? चलेगा। इसलिए भगवान ने कहा है कि जीते जी ही मरे हुए के जैसे रहो। बिगड़ा हुआ सुधर सकता है। बिगड़े हुए को काट नहीं देना चाहिए। बिगड़े हुए को सुधारना वह हमसे हो सकता है, आपको नहीं करना है। आपको हमारी आज्ञा के अनुसार चलना है। वह तो जो सुधरा हुआ हो वही दूसरों को सुधार सकता है। खुद ही सुधरे नहीं हों, तो दूसरों को किस तरह सुधार सकेंगे? बच्चों को सुधारना हो तो हमारी इस आज्ञा के अनुसार चलो। घर में छह महीने का मौन लो। बच्चे पूछे तब ही बोलना और वह भी उन्हें कह देना कि मुझे न पूछो तो अच्छा। और बच्चों के लिए उल्टा विचार आए तो उसका तुरन्त ही प्रतिक्रमण कर देना चाहिए। रिलेटिव समझकर उपलक रहना बच्चों को तो नव महीने पेट में रखना, फिर चलाना, घूमाना, छोटे

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