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(१२५) ॥ अथ श्री शांतिजिन विनतिरूप बंद ॥ ॥ शारद माय नमुं शिर नामि, दुं गावं त्रिनुव नको स्वामी ॥ शांति शांति जपे सब कोइ, ता घर शांति सदा सुख हो ॥ १ ॥ शांति जपी जे कीजें काम, सोइ काम होवे अनिराम ॥ शांति जपी पर देश सिधावे, ते कुशनें कमला ले आवे ॥ २॥ गर्न थकी प्रनु मारि निवारी, शांतिजी नाम दियो हित कारी ॥ जे नर शांति तणा गुण गावे, रुधि अचिं ती ते नर पावे ॥ ३ ॥ जा नरकू प्रनु शांति सहाइ, ता नरकू क्या प्रारति जाइ ॥ जो कबु वं सोई पूरे, दारि पुरख मिथ्यामति चूरे ॥ ४ ॥ अलख निरं जन ज्योत प्रकाशी, घट घट अंतरके प्रनु वासी ॥ स्वामी स्वरूप कह्यु नवि जाय, कहेतां मोमन अच रिज थाय ॥ ५॥ मार दीए सवहीं हथियारा, जी त्यां मोह तसा दल सारां ॥ नारि तजी शिवगुं रंग राचे, राज तज्युं पण साहेव साचे ॥ ६ ॥ महा बलवंत कहिले देवा, कायर कुंथु न एक हणेवा । ऋदि सयल प्रनु पास लहीजें, निदा आहारी नाम कहीजें ॥ ७ ॥ निंदक पूजककू सम नायक, पण सेवकहीकू सुख दायक ॥ तजी परिग्रह नये जगना यक, नाम अतिथि सवि सिदिलायक ॥ ७ ॥ शत्रु मित्र सम चित्त गणीजें, नामदेव अरिहंत जणीजें ॥ सयल जीव हितवंत कहीजें, सेवक जाणी माहापद दीजें ॥॥ सायर जैसा होत गंजीरा, दूषण एक
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