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(११६) यो, ते जाणो तमें सद हो ॥ जि॥४॥तिर्यच तणा नव कीधा घरोरा, विवेक नहींय लगार ॥ निशि दिननो व्यवहार न जाण्यो, केम उतराये पार हो ॥ जि० ॥ ५ ॥ देव तणी गति पुण्यें दुं पाम्यो, विष यारसमां नीनो॥व्रत पञ्चरकाण उदय नवि अाव्यां, तान मानमांहे तीनो हो ॥ जि ॥ ६॥ मनुष्य ज नम ने धर्मसामयी, पाम्यो यूँ बहु पुण्यं ॥ राग ष मांहे बहु नलियो, न टली ममता बुद्धि हो ॥ जिन ॥७॥ एक कंचन ने बीजी कामिनी, तेहा मनडुं बाधुं ॥ तेना जोग लेवाने हुं शूरो, केम करी जिनधर्म साधु हो ॥ जि ॥6॥ मननी झोड कीधी अति जाजी, ढुंबनं कोक जड जेहवो ॥ कलि काले कल्प में जन्म गमायो, पुनरपि पुनरपि तेहवो हो। जिन ॥ ए॥ गुरु उपदेशमां दुं नर्थ। नीनो, नावि स दहणा स्वामी ॥ हवे वडाइ जोश्यें तमारी, खिजम तमांहि ने खामी हो ॥ जि॥१०॥ चार गतिमा हे रड वडीयो, तोए न सीधां काज ॥ झपन कहे ता रो सेवकने, बांहे ग्रह्यानी लाज हो ॥ जि०॥११॥
॥अथ पार्श्वजिन प्रजाति स्तवनं ।। ॥ मेरे ए प्रनु चाश्य, निन उठी दरिसण पानं ॥ चरणकमल सेवा करूं, चरणे चित्त लायं ॥ मेरे ए प्र० ॥१॥ मन पंकजके महेलमें, प्रनु पास बेग लं ॥ निपट नजिक में दुइ रहूं, मेरो जीव रमाउं ॥ ॥ मे ॥ २॥ अंतरजामी एक तुं, अंतरिक गुण