Book Title: Chidkay Ki Aradhana
Author(s): Jaganmal Sethi
Publisher: Umradevi Jaganmal Sethi

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Page 6
________________ 4/चिद्काय की आराधना यथार्थ ज्ञान प्राप्त करने की रूचि के अभाव में जीव अनादिकाल से अपने स्वरूप को, अपनी ही चिद्काय को ही प्राप्त नहीं कर पाया। यह चिद्काय ही भगवान है। परम शान्ति का अनुभव करने के लिए निज चिद्काय की अचिन्त्य सामर्थ्य पर विश्वास करके अपने उपयोग को निज चिद्काय में लीन करना चाहिये। धर्म की शुरूआत सम्यग्दर्शन से होती है। कहा भी है 'हे सर्वोत्कृष्ट सुख के हेतुभूत महा मंगलकारी सम्यग्दर्शन! आपको अत्यन्त भक्ति पूर्वक नमस्कार हो।' इस अनादि संसार में अनन्तानन्त जीव सम्यग्दर्शन के बिना अनन्तानन्त दुःखों को भोग रहे हैं। आपकी परम कृपा से मुझे स्वरूप की रूचि हुई, परम वीतराग स्वभाव, निज चिद्काय की दृढ़ प्रतीति उत्पन्न हुई और मुझे कृतकृत्य होने का मार्ग ग्रहण करने का परम सौभाग्य प्राप्त हुआ। हे जीवो! यदि आत्म कल्याण करना चाहते हो तो पवित्र सम्यग्दर्शन प्रगट करो। अंतर्दृष्टि से स्वतः शुद्ध और समस्त प्रकार से परिपूर्ण आत्मस्वभाव की रूचि, विश्वास, प्रतीति करो। अपनी चिद्काय का लक्ष्य और उसी का आश्रय करो। इसके अतिरिक्त सर्व की रूचि, लक्ष्य और आश्रय छोड़ो। त्रिकाली चिद्काय सदा शुद्ध है, परिपूर्ण है और सदा प्रकाशमान है। भगवान! शांति तो तेरी ही दिव्य काया में भरी हुई है। भाई ! एक बार तू अपने घर को देख। सब ओर से उपयोग हटाकर निज घर जो तेरा चिद्तन है उसको अंतर्दृष्टि कर देख। तेरी साड़े तीन हाथ की देह जो सामने दीख रही है, उसी में तेरी गुप्त निधि छिपी हुई है। इसी देह में पाँव के अंगूठे से लेकर मस्तक तक देहप्रमाण तेरी दिव्यकाया स्थित है, असंख्यात प्रदेशों का पुंज भगवान पूर्णानन्द का नाथ विराजमान है। तू उसे नेत्र बन्द कर अंतर्दृष्टि करके देख। तेरी यह चिद्काय ही प्रभु है, सिद्ध है। उसका आश्रय लेने से सम्यग्दर्शन प्रगट होगा और परिणति निर्मल होगी।

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