Book Title: Chidkay Ki Aradhana
Author(s): Jaganmal Sethi
Publisher: Umradevi Jaganmal Sethi

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Page 5
________________ चिद्काय की आराधना/3 चिद्काय की आराधना मंगलं भगवान वीरो, मंगल गौतमो गणी। मंगलं कुन्दकुन्दाद्यो, जैनधर्मोस्तु मंगलं।। सर्व मंगल मांगल्यं, सर्वकल्याण कारकं। प्रधानं सर्व धर्माणां, जैनं जयतु शासनं।। शुद्ध सिद्ध अर्हन्त अरु, आचारज उवझाय। साधुगण को मैं सदा, प्रणमूं शीश नवाय।। देव शास्त्र गुरु को नमन, करके बारम्बार। करूँ भाव पूजा प्रभो, यही मुक्ति का द्वार।। प्रण| आतमदेव को, जो है सिद्ध समान। यही इष्ट मेरा प्रभो, शुद्धातम भगवान।। भवदुःख से भयभीत हूँ, चाहँ निज कल्याण। निज आतम दर्शन करूँ, पाऊँ पद निर्वाण।।ज्ञानी जीव सम्यग्दर्शन को कल्याण की मूर्ति कहते हैं। इसलिये हे भव्य जीवो! सर्वप्रथम सम्यग्दर्शन प्रगट करने का अभ्यास करो। हे वीतराग जिनेन्द्र! आपको अत्यन्त भक्ति पूर्वक नमस्कार करता हूँ। आपने इस पामर के प्रति अनन्तानंत उपकार किये हैं। हे आचार्य, उपाध्याय, साधु परमेष्ठी! आपके वचन भी स्वरूप अनुसंधान में इस पामर को परम उपकारभूत हुये हैं, इसलिये आपको परम भक्तिपूर्वक नमस्कार करता हूँ। __ अपना आत्मस्वरूप समझना सुगम है, किन्तु अनादि से स्वरूप के अनभ्यास के कारण कठिन मालूम होता है। यदि कोई यथार्थ रूचि पूर्वक समझना चाहे तो बहुत सरल है। निज जीवास्तिकाय को कर्मबंधन से मुक्त करने के लिये जीव , पूर्ण स्वतंत्र है; किन्तु पर में कुछ भी करने के लिये जीव में किंचित् भी सामर्थ्य नहीं हैं। अपने आत्मा में इतनी अपार स्वाधीन सामर्थ्य विद्यमान है कि यदि बहिर्दृष्टि से उल्टा चले तो नरक जा सकता है और अन्तर्दृष्टि करके सीधा चले तो केवलज्ञान प्राप्त कर सिद्ध हो सकता है।

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