Book Title: 125 150 350 Gathaona Stavano
Author(s): Danvijay
Publisher: Khambat Amarchand Premchand Jainshala

View full book text
Previous | Next

Page 228
________________ (६२) अर्थ-हवे पूर्व का हतुं जे अहिंसामां नयना प्रकार घणा छे ते देखाडे छे तेमा प्रथम नैगमनयआश्री जीवने विषे तथा अजीवने विषे हिंसा कहे छे ते नैगमनय एम कहे छे जे जेम लोकमां अमुके जीव हण्यो तेमज अमुके अजीव घटने हण्यो घटनो विनाश करयो इत्यादिक हिंसा शब्द सघले प्रवर्ने छे. तथा संग्रहनय अने व्यवहारनय ए बेहु नयने मते छकायने विषे हिंसा भाने पण जे अजीवनी हिंसा तेने हिंसा मानता नथी. इहां संग्रहनयना बे भेद छे एक देशग्राहीसंग्रह बीजो सर्वग्राहीसंग्रह तेमां सर्वग्राहीसंग्रह तो नैगमनयमां भल्यो माटे देशग्राहीसंग्रह इहां लीपो छे. हिसा शब्द अजीवमा प्रवर्ततो लीधो नथी ते माटे देशग्राहीसंग्रह तथा व्यवहारनय तो जे रीते लोक माने ते रीते माने माटे लोक पण छकायने हिंसा माने छे तेम ए बे नयवादी पण कहे छे. तथा ऋजुसूत्र नयवालो भतिजी के जीव जीव मते भिन्न भिन्न हिंसा माने छे एम ओपनियुक्तिनी वृत्ति मध्ये का छेते आगल एज गाथामां कहे छे. तथाच तद्देशः"तत्र नैगमस्य जीवेष्वजीवेषु हिंसातथा च वक्तारो लोके दृष्टाः यदुत जीवोनेन हिसितो विनाशितः, तथा घटोनेन हिसितो विनाशिवः, ततश्च सर्वत्र हिंसाशद्वानुवर्जनात् जीवेष्वजीवेषु च हिंसा नैगमस्य अहिंसाप्येवमेवेति । संग्रहव्यवहारयोः पसु जीवनिकायेषु हिंसा, संग्रहश्चात्र देशग्राही द्रष्टव्यः, सामान्यरूपश्च नैगमातंर्भावी, व्यवहारथ स्थूल विशेष ग्राही लोकव्यवहरणशीलश्चायं तथा च-लोको बाहुल्येन पट्स्वेव जीवनिकायेषु हिंसामिच्छतीति। ऋजुसूत्रश्च प्रत्येकं प्रत्येकं जीवे जीवे हिंसां व्यतिरिक्तामिच्छतीति" हवेशद्धार्थ लखीय छैयें. जीव अजीवने विषे नैगमनयने मते हिंसा कहेवी ए जुत्त के० युक्त छे अने संग्रह तथा व्यवहारनयने मते छकायने विषेज हिंसा माने छे तथा ऋणुसूत्रने मते जीव जीव मते हिंसा जुदी जुदी मानवी ॥२६॥ आतमरूप शब्दनय तिने, माने एम अहिंस। ओघवृत्ति जोइने लहियें, सुख जश लील प्रशंस ॥ मन० २७॥ अर्थ-आत्मरूप के० आत्मा तेज स्वरूप छे माटे हिंसा अथवा अहिंसा ते आत्मारूप माने छे शब्दनय तिने के० शब्द छे प्रधान जेने एवा त्रण नय १ शब्द २ समभिरूढ ३ एवंभूत ए त्रण नय माने छे जे पोतानो आत्मा प्रमादी थयो त्यारे आत्मा ते हिंसा अने तेज आत्मा जेवारे अममादी थयो तेवारें आत्मा तेज अहिंसा. यतः-" आया चेव अहिंसा, आया हिंसति निच्छओ एसो । जो होइ अप्पमत्तो, अहिंसओ हिंसओ इयरो ॥१॥" इति ओपनियुक्ति वचनात्. पाछला त्रण नय निश्चयना धरना छे माटे ओपनियुक्तिनी वृत्तिनो पाठ पण एम छे. यया-"शब्दसमभिरुढवभूताश्च नया आत्मैवाहिंसा आत्मैवहिंसा इति" हिंसा सात नये फलावी तेमज अहिंसा के० अहिंसा पण फलावियें. "अहिंसाप्येवमेवेति" ओपनियुक्तिवृत्तिवचनात्. ए हिंसाना तथा अहिंसाना सात प्रकार ते ओपनियुक्तिनी वृत्ति जोडने सुख जशनी लीला तथा रुडी प्रशंसा ते लहिये के० पामियें एटले यथार्थ जाणवाथी एटला वानां पामियें ॥ २७ ॥

Loading...

Page Navigation
1 ... 226 227 228 229 230 231 232 233 234 235 236 237 238 239 240 241 242 243 244 245 246 247 248 249 250 251 252 253 254 255 256 257 258 259 260 261 262 263 264 265 266 267 268 269 270 271 272 273 274 275 276 277 278 279 280 281 282 283 284 285 286 287 288 289 290 291 292 293 294 295