Book Title: 125 150 350 Gathaona Stavano
Author(s): Danvijay
Publisher: Khambat Amarchand Premchand Jainshala

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Page 247
________________ (८१) शुभ संघयणी रूपनिधि, पूरण अंग उपंग | ते समरथ सेजें धरे, धर्म प्रभावन चंग ॥ ६॥ अर्थ- शुभ के० उत्तम संघयणवंत होय रूपनुं निधान होय संपूर्ण अंगोपांग होय पंचेंद्रिय पूर्ण होय ते धर्मकरणी करवाने सेहेजे समर्थ होय, ते धर्मनी प्रभावना करे. इहां नंदिखेण तथा हरिकेशी प्रमुख साथे विरोध न गणवो केमके ते पण संपूर्ण अवयववंत हता तथा आ वचन ते प्रायिक छे. जो विशेष वीजा गुणयुक्त होय तो रूपनुं प्रयोजन नयी ॥६॥ पाप कर्मे वरते नहीं, प्रकृति सोम्य जग मित्त | सेवनीक होवे सुखे, परने प्रशम निमित्त ॥ ७ ॥ अर्थ - पाप कर्म ते आक्रोश वध हिंसा चोरी प्रमुखने विषे न प्रवर्त्ते आजीविका प्रमुख कारण टालीने सेहेजे सौम्यभाव अवीहामणो सर्व जगतने विषे मित्रता होय एवा पुरुषने सुखे लोक सेवी शके परने प्रशम के० समतानुं कारण होय ए बीजो गुण थयो ॥ ७ ॥ जन विरुद्ध सेवे नहीं, जनप्रिय धर्मे सूर | मलिन भाव मनथी तजी, करी शके अक्रूर ॥ ८ ॥ अर्थ- जन गन्दे लोक कहियें ते लोकमां इहलोक तथा परलोक अने उभयलोक पण आवे एटले ए भाव जे इहलोक विरुद्ध न सेवे. - यदुक्तं " सव्चस्स चेव निंदा, विसेसओ तहय गुणसमिद्धाणं । उजुधम्मकरणहसणं, रीढा जणपूयणिज्जाणं ॥ १ ॥ बहुजणविरुद्ध संगो, देसाचारलंघणं तह य । उव्वणभोगो य तहा, 'दाणाइवि पयडमनेओ || २ || साहुवसमि तोसो सड़ सामत्थंम अपडिआरो अ । एमाइयाई इत्थं, लोगविरुद्धाई नेयाई || ३ || " तथा परलोक विरुद्ध जे खर कर्मादि ते पन्नर कर्मादिक तथा उभयलोक विरुद्ध द्यूतादिक सात व्यसन न सेवे तोज जनप्रिय के० लोकने प्रिय तथा धर्मे मूर के० धर्मनो अधिकारी होय ए चोथो गुण को मलिनभाव मनथी तजीने धर्म करी गके एटलं धर्मपद बहारथी ले ते अक्रूर कहियें केमके. लोकप्रिय तथा अक्रूरगुणनुं लक्षण धर्मरत्नमकरण मध्ये एमज बखायुं छे. यथा - " इह परलोयविरुद्धं, न सेवए दाणविणयशीलडो । लोयप्पिओ जणाणं, जणेइ धम्मंमि वहुमाणं ॥ १ ॥ कूरो किलिहभावो, सम्मं धम्मं न साहिलं तरह । इह सो न इत्थ जोगो, जोगो पुण होइ अक्कूरो || २ ||" ए गाथाने अनुसारें अर्थ करयो छे वली बुद्धि अविरुद्धपणे जे तो विशेष करजो ए पांचमो गुण ॥ ८ ॥ इह परलोक अपायथी, वीहे भीरुक जेह । अपयशथी वली धर्मनो अधिकारी छे तेह ॥ ९ ॥ {. अर्थ - आलोक तथा परलोक्ना अपायथी के० कष्टथी वीहे तथा अपयशथी बीहे वे भीरुक कहिये ते पुरुष धर्मनो अधिकारी जाणवो ए छठ्ठी गुण कह्यो ॥ ९ ॥ -

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