________________
(१३२) स्थिरजग्ने पदावाप्तिः सौम्यस्वामियुतेक्षिते । तदोदिते च राज्येशे राज्यं भवति भूभुजाम् ।। ७०६ ॥ इत्यमेव पदावाप्तिः सा त्वल्पा किन्तु वृश्चिके । स्थिरं पदं स्थिरैः प्रोक्तं द्वयङ्गश्चापि शुभस्थितैः ।। ७०७ ।। क्ररयोगे च वेधे च भवत्येव पदच्युतिः । चतुःपञ्चभिरुचादिकेन्द्रकोणगतैग्रहैः । वाञ्छितैव पदावाप्तिर्देशवंशानुसारतः ॥ ७०८ ॥ सेनाधिपत्ययोगैश्च दुर्धराशुनफादिभिः । पदावाप्तिर्भवत्येव नच स्वल्पा विपर्यये ॥ ७०९ ।। स्वोचं तनुः शुभः स्त्रोच्चात्पश्यत्युञ्चपदार्पकः । द्वयाधुचादिकेन्द्रादिस्थितदृष्टोदितस्तथा ।। ७१० ॥
जन्म काल में स्थिर लग्न हो और वह अपने स्वामी तथा शुभ ग्रहों से युक्त तथा दृष्ट हो उस समय यदि राज्येश उदित हो तो राजाओं को राज्य होता है।॥७०६।।।
इस प्रकार पद की प्राप्ति होती है यदि वृश्चिक लग्न हो तो अल्प रूप से पद को प्राप्ति होती है स्थिर राशि लग्न हो तो स्थिर पद होता है, द्विस्वभाव राशि हो और शुभ ग्रहों मे दृष्ट हो तो भी स्थिर पद होता है ॥७०७॥
यदि कर ग्रहों का योग हो वा वेध हो तो पद की च्युति होती है।
चार पांच ग्रह उभादि अर्थात उन्न, स्वगृह, मित्रादि उत्तम स्थानों में तथा केन्द्र, त्रिकोगा, में हों तो अपनी इच्छानुकूल, कुल देश के अनुसार पद की प्राप्ति होती है ।। ७०८ ॥
दुर्घश. सुनफादि सेनाधिपत्य योग से पद को प्राप्ति होती है विपरीत होने पर नहीं होती ॥ ७०६ ॥
शुभ ग्रह लग्न में उच्च का हो और स्वोच्च स्थित शुभग्रहों से दृष्ट हो तो उस पद को देने वाला होता है एवं द्वयादि प्रह उच्चादि अर्थात उच्च, वर्गोत्तम, स्वगृही, मित्रगृही, इत्यादि होकर केन्द्र त्रिकोण में स्थित हो
और इसी तरह का बलवान् ग्रह से दृष्ट हो और उदित हो तो उस पद को देता है ।। ७१०॥
1. करबोधे च योगेशे for करयोगे च वेधे च A. AL,