Book Title: Trailokya Prakash
Author(s): Hemprabhsuri
Publisher: Indian House

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Page 207
________________ केन्द्रत्रिकोणगैः सौम्य ष्टिधुने गमागमः । स्त्रीराशिमूर्तिगैस्तैस्तु दृष्टे वा स्त्रीगृहांशके ॥ ८३८ ॥ स्त्रीप्राप्तिव्यस्तयोगैस्तु लाभस्तासां वरस्य च । लमेश्वरो वरश्चिन्त्यो नारी च धनपा मता ॥ ८३९ ॥ लने पुष्टे वरः श्रीमान् धने पुष्टे च कन्यका । वित्ते पुष्टे स्वयं भर्ता दत्ते पल्यै धनं बहु ॥ ८४० ॥ छिद्रे पुष्टे वधूर्दत्ते स्वभत्रै स्नेहतो धनम् । समृद्धौ छिद्रवित्तौ द्वावुभौ दत्तो वधूवरौ ॥ ८४१ ।। सकरे वित्तगेहे तु समृद्धौ वधूवरौ । ससौम्ये वित्तगेहे तु समृद्धौ तौ परस्परम् ॥ ८४२॥ मित्रक्षेत्रे च तो प्रीतो यावज्जीवं क्रियापरौ । शत्रुक्षेत्रगतौ द्वौ तु बद्धवैरौ निरात्मकौ ॥८४३॥ शुभ ग्रह केन्द्र त्रिकोणा स्थान में होकर सप्तम स्थान को देखते होतोत्री का आगमन होता है. यदि कन्या लग्न हो उस में शुभ ग्रह का योग अथवा दृष्टि हो वा कन्या राशि के नवमांश में हो ॥ ८३८॥ तो स्त्री की प्राप्ति होती है और स्त्री को कुण्डली में इसका विपरीत योग हो तो उसको वर का लाभ होता है। लग्नेश को वर और सम्मेश से स्त्री का विचार करें॥८३६॥ लग्न पुष्ट हो तो वर लक्ष्मीवान होता है, और सप्तम भाव पुष्ट हो तो कन्या लक्ष्मीरूपा होती है और धन भाव पुष्ट हो तो स्वामी अपनी स्त्री को बहुत धन देता है ।। ८४०॥ यदि अष्टम भाव पुष्ट हो तो स्त्री अपने स्वामी को प्रेम से बहुत धन देती है, और अष्टम, तथा धनभाव दोनों बलवान हों तो दोनों परस्पर धन देते हैं।॥४१॥. धन स्थान में पाप ग्रह हो तो स्त्री पुरुष दोनों को धन की इच्छा रहती है, और धन स्थान में शुभ ग्रह हो तो वधूवर दोनों परस्पर समृद्ध होते है॥८४२॥ यदि लमश, सप्तमेश, दोनों मित्र के घर में हों तो स्त्री पुरुष अपनी क्रिया में यावजीवन प्रेम पूर्वक रहते हैं, और दोनों यदि शत्र के घर में हों तो दोनों का परस्पर वर भाव रहता है ॥८४३ ।।

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