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सूत्र संवेदना-५
तीर्थों की वंदना करने से प्राप्त हुए शुभभाव साधक को पुण्यानुबंधी पुण्य का बंध करवाकर, दुनिया के श्रेष्ठ सुख की प्राप्ति करवाते हैं। प्रभु कृपा से प्राप्त हुए पुण्य के प्रताप से साधक मिली हुई भौतिक सुख-संपत्ति में कभी भी आसक्त नहीं होता; उस सामग्री का सदुपयोग करके पुनः पुण्यानुबंधी पुण्य बांधकर, उत्तरोत्तर अधिक सुखसंपन्न सद्गति की परंपरा का सृजन करके अंत में सिद्धिगति तक पहुँचता है। इस प्रकार तीर्थ-वंदना करोड़ों कल्याण की परंपरा का सर्जन करती है।
इसके अलावा शुद्धभाव के साथ जुड़ा हुआ परमात्मा का नाम एक मंत्र बन जाता है। इस नाममंत्र का बार-बार स्मरण, रटन और जाप रागादि विष का विनाश करता है, वैराग्यादि भावों को दृढ़ करता है, कषायों के कुसंस्कारों को कमज़ोर करता है, क्षमादि गुणों का सर्जन करता है और कर्मों के आवरणों को हटाता है। परिणामस्वरूप साधक यहीं पर आत्मा के आनंद को प्राप्त कर सकता है। इसीलिए कहा गया है कि, 'जिनवर नामे मंगल कोड' जिनवर के नाम से करोड़ों कल्याण प्राप्त होते हैं।
सामान्य से सभी तीर्थों की वंदना तथा वंदन करने का प्रयोजन बताकर अब विशेष से ऊर्ध्व, अधो आदि लोक के तीर्थों को वंदना की गई है। १. ऊर्ध्वलोक के तीर्थों की वंदनाः (गाथा १ से ६।।) पहले स्वर्गे लाख बत्रीश, जिनवर चैत्य नमुं निशदिश ।।१।। बीजे लाख अट्ठावीस कह्यां, त्रीजे बार लाख सद्दयां, चोथे स्वर्गे अडलख धार, पांचमें वंदुं लाख ज चार ।।२।। छठे स्वर्गे सहस पचास, सातमे चालीस सहस प्रासाद, आठमे स्वर्गे छ हजार, नव दशमे वंदुं शत चार ।।३।।