Book Title: Sutra Samvedana Part 05
Author(s): Prashamitashreeji
Publisher: Sanmarg Prakashan

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Page 336
________________ सकलतीर्थ वंदना ३२३ बाहर निकालकर सात दिन के बछड़े से जोड़े गए रथ में बैठाकर स्वयं सारथि बनकर अच्छे स्थान में ले जायें परन्तु उसके पहले पीछे मुड़कर नहीं देखें। प्रातः काल में उठकर राजा ने उसी प्रकार किया, परन्तु थोड़ी दूर जाते ही संशय होने से राजा ने पीछे दृष्टि की । देखते ही प्रतिमाजी उसी जगह आकाश में स्थिर हो गई । उस समय प्रतिमाजी के नीचे से घुडसवार के गुज़रने की जगह थी । इस चमत्कारी घटना से प्रभावित होकर राजा ने वहीं श्रीपुर (शीरपुर) नगर बसाकर नया जिन मंदिर बनवाया । १९४२ में मल्लवादी अभयदेवसूरि म.सा. के हाथ से प्रतिष्ठा करवाई। आज भी यह पार्श्वनाथजी का बिंब भूमि से थोड़ी ऊँचाई पर निराधार स्थित है जिसके कारण उसके नीचे सहजता से आर-पार कपड़ा जा सकता है। इस तीर्थ के प्रभाव से पू. भावविजयजी गणि की आँखों का कष्ट दूर हो गया था और उनकी आँखों का तेज़ वापस आ गया था । यह पद बोलते हुए ऐसी चमत्कारिक मूर्ति को ध्यान में लाकर सोचे कि, “मेरे परम पुण्योदय से आज भी ऐसी देव अधिष्ठित प्रतिमाएँ हैं; उनके दर्शन, वंदन और स्पर्श करके मेरी मलिन आत्मा को निर्मल करने का यत्न करूँ और शीघ्र आत्मिक आनंद प्राप्त करूँ ।" वरकाणो पास : यह प्राचीन तीर्थ राजस्थान में है। शास्त्र में यह नगर वरकनक नाम से प्रसिद्ध है। इस नगर के बीच में जिनमंदिर है । यहाँ की प्रतिमाजी लगभग वि.सं. ५१५ में प्रतिष्ठित हुई थी ।

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