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जैन महाभारत
सेना लेकर जा रहे हैं। दुर्योधन ने यह जान कर भी इंती सुन्दर सत्कार किया, यह कितना वडा एहसान कर दिया. दुर्योधन ने यह जान कर वे बड़े असमजस - मे पड़े। वे सोचने लगे कि यह जानते हुए भी कि उक्त सारी सेना उसी के विरुद्ध काम प्रायेगी यह सेना उसके नाश का कारण भी बन सकती है इस सेना के बल पर उस मे राज गद्दिया छीनी जा सकती है दुर्योधन ने इतना शानदार स्वागत सत्कार किया इतनी उदारता का होना सचमुच एक वडी बात है। मोचते सोचते अनायास ही उन के हृदय में दुर्योधन के प्रति आदर तथा स्नेह की भावना जागृत हो गई
प्रसन्न होकर बोले-"राजन । तुमने जो कुछ किया उम के भार से मैं दबा सा जाता है। तुम्हारा यह ऋण मैं कैसे चुकाऊ ?
दुर्योधन बोला-“महाराज ! यह एहसान की तो कोई बात. नही यह तो मेरा कर्तव्य था। आप जैसे युधिष्ठर के लिए- वैसे मेरे लिए। मैंने तो कुल रीति अनुसार आप को मामा समझ कर ही यह सत्कार किया ।
____फिर भी तुम्हे यह तो ज्ञात ही होगा कि हम अपनी सेना सहित पाण्डवो की सहायता के लिए जा रहे है। मद्र राज बोले।"
"आप मेरे विरोध मे भी जाते हो फिर भी आप का-सत्कार करना तो मेरा कर्तव्य है ही।" दुर्योधन ने अपने मन की बात छिपाते हुए कहा।
"जो भी हो हम तुम्हारे, इस भार से कैसे मुक्त हो सकते हैं, यही मेरे सामने प्रश्न है।"
"आप वास्तव मे मुझ से इतने ही प्रसन्न है तो कृपया आप अपनी सेना सहित मेरी सहायता करें।" -दुर्योधन ने उपयुक्त प्रवसर समझ कर मन की बात कही।
"बडो जटिल समस्या या गई । विचारो मे डुवे मद्रराज