Book Title: Shukl Jain Mahabharat 02
Author(s): Shuklchand Maharaj
Publisher: Kashiram Smruti Granthmala Delhi

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Page 593
________________ * बावनवा परिच्छेद * दुर्योधन का अन्त हिसात्मक युद्ध के द्वारा अधर्म अथवा अत्याचार को नष्ट करने की आशा करना व्यर्थ है। हथियार वन्द युद्ध से अत्याचार तथा अन्याय कभी नही मिटते । तभी तो भगवान महावीर ने कहा है कि ... "वैर से वैर निकालने मे वैर हो को वृद्धि होती है ।" धार्मिक उद्देश्यो के जो भी युद्ध किए जाते हैं, उनमे भी अनिवार्य रूप से अन्याय और अधर्म होते हा हैं । ऐसे युद्धो के परिणाम स्वरूप अधर्म की वृद्धि ही होती है। इसी सिद्धान्त के अनुसार यदि हम महाभारत के युद्ध को देखे तो इस परिणाम पर पहुचेगे कि कितनी ही बाते पाण्डवों की ओर से भी धर्म विरोधी ही हुई । कर्ण का वध किस प्रकार हुआ, इसे देखकर, द्रोणाचार्य के बध की गाथा पढकर और भूरिश्रवा के वध मे अपनाए गए उपायों को देखकर तो यह और भी प्रगट हो जाता है कि युद्ध दूसरे पापो अधर्मों तथा अन्यायो का कारण बन जाता है, चाहे वह किया गया हो अधर्म अथवा अन्याय के प्रतिकार के ही लिए । जव दुर्योधन को कर्ण के वध का समाचार मिला तो उसके शोक की सीमा न रही । यह दुख उसके लिए असहाय हो उठा। वह बार वार कर्ण को स्मरण करके विलाप करने लगा। उसकी इस शोचनीय स्थिति को देखकर कृपाचार्य ने कहा-"राजन । आपने जो जो कार्य, जिस जिस व्यक्ति को सौंपा, उसी ने प्रसन्नता पूर्वक

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