Book Title: Shukl Jain Mahabharat 02
Author(s): Shuklchand Maharaj
Publisher: Kashiram Smruti Granthmala Delhi

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Page 607
________________ अश्वस्थामा ५९९ तक किसी ने प्रहार नही किया-पर सम्भव है यह मेरे उस कर्म का फल हो जो मैंने द्रोण के साथ किया था । हाय ! मैं युद्ध जीत कर भी बुरी तरह हारा । अब द्रौपदी के दिल पर क्या बीतेगी ? मेरी दशा उस पाजी की सी हो गई जो महा सागर को तो सफलता पूर्वक पार कर लेता है,पर अन्त मे छोटे-से नाले मे डूबकर नप्ट हो जाता है। श्री कृष्ण उन्हे सांत्वना देते हुए बोले-“महाराज युधिप्टिर । व्यर्थ शोक करने से क्या लाभ ? जो होना था हो गया। मरता क्या न करता की लोकोक्ति को चरितार्थ करते हुए अश्वस्थामा ने यह मव कुछ किया है। उसने जो कुछ किया वह अपनी आत्मा के साथ ही अन्याय किया है । वीरो का कर्तव्य है कि वे खोकर दुखी और पाकर प्रफुल्लित न हो । आप तो धर्म राज है । आपको विलाप करना शोभा नहीं देता। जो हुआ, उसे भूल जाओ।" द्रौपदी की दशा तो बडी हो दयनीय थी । जव उसने अपने वेटो के मारे जाने का समाचार सुना, वह सन्न रह गई। पागलो की भानि अपने व ल नोचने लगी, कपडे फाडने लगी। वडी कठिनाई से उसे होग मे लाया गया। तव वह बल खाती नागिन की भाति जल्दी से पाण्डवो के पास पहची और उसने गरज कर कहा-"क्या आप लागो में कोई भी ऐसा नही है जो मेरे पूयो की हत्या का बदला ले सके ?" इस चूनौती के उत्तर मे भीम सेन कडक कर वोला-"जब तक भीम सेन जीवित है। तुम्हे किसी प्रकार की चिन्ता नही है। मैं गपथ लेता हू कि कोई मेरा साथ दे अथवा न दे जब तक तुम्हारे पुत्रों के हत्यारे अश्वस्थामा से बदला न ले लूंगा, तब तक चैन से न वैठूगा ।" ___ भोम सेन की इस भीष्म प्रतिज्ञा को सुनकर एक बार तो सभी सन्न रह गए । परन्तु फिर उसकी प्रतिज्ञा को पूर्ण कराने के लिए सभी उसके साथ चलने को तैयार हो गए। सभी भ्राता अश्वस्थामा की सोज में निकल पडे । ढढते ढूंढने आखिर उन्होंने गगा के तट पर व्यास के आश्रम मे छपे अश्वस्थामा का पता लगा ही लिया पीर जाकर उसे घेर लिया। अश्वस्थामा और भीम सेन मे युद्ध छिड़ गया । दोनों वीर

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