Book Title: Shukl Jain Mahabharat 02
Author(s): Shuklchand Maharaj
Publisher: Kashiram Smruti Granthmala Delhi

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Page 612
________________ ६०२ जैन महाभारत नही था जिसका कोई मरा न हो । सब हा हा कार कर रहे थे। सभी को पाखों से सावन भादो की झड़ी लगी थी । सारे नगर मे चीत्कारो का इतना शोर था कि नगर मे प्रवेश करते हुए दिल घबराता था । ध्तराष्ट्र अपने साथ निस्सहाय स्त्रियों को लेकर कुरुक्षेत्र की ओर चले, रोने पीटने वालो का यह दल जब कुरुक्षेत्र मे पहुचा तो एक बार सारा क्षेत्र विलाप से भर गया । जहा लगभग तीन सप्ताह तक तलवारें, धनुष, भाले, बछिया, सिंह नाद, हाथियो की चिंघाड़ें, घोडो की हिनहिनाहट सुनाई देती थी, वही अव स्त्रियों का करुण क्रन्दन गूज रहा था । पृथ्वी से उठते चीत्कार आकाश को छने लगे। एक भयानक विलाप सारे क्षेत्र की छाती दहला रहा था। उस क्षेत्र मे चारो ओर लागे ही लाशे दिखाई देती थी । कुत्ते और श्रृगाल वीरो के शवो को खीच रहे थे । चीलो और गिद्धो के झुण्ड के झुण्ड लाशो पर टूट पडे थे। जव चीलो, गिद्धो, कुत्तो और श्रगालो ने जब मनुष्यो के रोने पीटने को आवाज सुनी तो वे भी एक साथ मिल कर बोल उठे । उस समय इतना शोर हा कि कान पडी आवाज सुनाई नही देती थी। लगता था कि पशु पक्षी मनुष्यो के चीत्कारो की खिल्ली उडा रहे हो और कट रहे हो-"विनाश की लीला रचाते समय नही सूझा था अव यांसू बहाते हो। अव विलाप करने से क्या लाभ ?" सब अपने अपने प्रिय जनो के शवो को खोज रहे थे । कोई किसी खोपड़ी को हसरत भरी नज़रो से देखकर प्रांसू बहा रही थी तो कोई किसी घड से लिपट कर रुदन कर रही थी। और धृतराष्ट्र तो एक ओर खडे प्रासू वहाते रहे । वह वेचारे अपने पूत्रो के शगे को भी पहचान सकने की शक्ति न रखते थे।

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