Book Title: Shukl Jain Mahabharat 02
Author(s): Shuklchand Maharaj
Publisher: Kashiram Smruti Granthmala Delhi

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Page 596
________________ ............mar जन महाभारत अभी कृपाचार्य शेष थे। उन्हे अपने मन की व्यथा सुनाते हुए दुर्योधन बोला-'प्राचार्य । अब तो सब तहस नहस हो गया । मैं अकेला हू न जाने मुझे भी कव मृत्यु श्रा दबाये । दूरदर्शी विदुर शायद पहले ही इस युद्ध के परिणाम को जानते थे, तभी तो वे मुझे वार बार समझाते रहते थे और युद्ध करने को भी उन्होने बहुत मना किया था। वे चाहते थे कि मैं सन्धि कर लू । पर मुझ पर न जाने कैसा भूत चढा था कि मैंने उनकी एक न सुनी और अपनी हठ से अपना सब कुछ गवा बैठा । अव में निस्सहाय है। कुछ समझ मे नही पाता कि क्या करू | राज्य पाण्डवो के हाथ मे चला गया, इसका मुझे दुख नहीं है, दुख है तो इस बात का कि मेरे अपने सभी चले गए । मैं उनकी याद मे तडपने रहने के लिए जीवित बचा ह । पिता जी जन्म के अन्ध हैं और माता पिता जी के कारण चक्ष हीन है । वे हमे याद कर करके रोते रहा करेगी। हाय ! मेरा अन्त इस प्रकार होगा, मुझे इसकी कभी आशा नही थी।" कृपाचार्य ने उसे धैर्य बन्धाते हुए कहा-"दुर्योधन ! इस प्रकार अधीर क्यो होते हो। तुमने तो साहस त्यागना कभी सीखा नही। तुम अभी अपने को अकेला क्यो समझते हो । अश्वस्थामा और मैं अभी तुम्हारे साथ है। तुम साहस पूर्वक युद्ध करो। देखो ! तुम्ही ने तो कहा था कि तुम भीरू की भाति जीना नहीं चाहते । जिस मनुष्य ने सदा शत्रुओ को ललकारा है वह विपदा आने पर इस प्रकार विलाप करने लगे, यह उसके लिए लज्जा को बात है ।" ___ "नही, प्राचार्य जी ! अब क्या रह गया है, जिस पर मैं गर्व करू । मैं जिन पर गर्व करता था, वे सभो मारे गए । अब युद्ध की बात मैं चाहे न करू तो भी युद्ध तो मेरे बघ के बाद ही बन्द होगा। मैं भाग कर कहा जा सकता हू । भीम मुझे जीवित थोडे ही छोडेगा । पर मैं निराश हो चुका है। युद्ध से मैं ऊब गया हू । मेरे जीवित रहने का तो कोई उपाय ही नही । पर खेद है तो इस बात का कि समय रहते मेरी आखें न खली और अपने बन्धु बाधवो के हत्यारों से मैं बदला न ले सका।" दुर्योधन ने व्याकुल व निराश होकर कहा। कृपाचार्य बोले- "दुर्योधन ! तुम्हे इतना हताश होने की

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