Book Title: Shukl Jain Mahabharat 02
Author(s): Shuklchand Maharaj
Publisher: Kashiram Smruti Granthmala Delhi

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Page 616
________________ जैन महाभारत श्री कृष्ण को फटकारते हुए कहा-"कृष्ण तू अव मुझे उपदेश दे आया है। क्या मैं नही जानती कि यह सव युद्ध की जड़ तू ही था तेरे ही कारण मेरे परिवार का नाश हुया। तेरे ही कारण रक्त के नदिया वही । तेरे ही कारण मेरे सौ पुत्र मारे गए । तेरे ही कारण भारत खण्ड के असख्य वीर बलि चढे । तू न होता तो असख्य नारियं का सुहाग न उजडता असख्य वालक अनाथ न होते । और कुरुक्षेत्र इस प्रकार हड्डियो से भरा न होता । तूने ही युद्ध के बीज बोये। तूने ही भीष्म, द्रोण, कर्ण, दुर्योधन और दुःशासन आदि का बध कराया और जिनका तू पक्षपाती बना, उन्हे भी इस योग्य कर दिया, कि वे कभी तेरे सामने छाती तान कर खड़े न हो सकेंगे। मैं जानती हूं कि त्रिखण्डी होने के उपरान्त मुझे चाह हई कि भारत खण्ड मे कोई ऐसा क्षत्रिय कुल न रहे, जो यादवो से किसी भी समय टक्कर ले सके। हमारा कुल तेरी आखो मे खटक रहा था और उसी का तू ने नाश करा दिया। पर याद रख कि तूने मेरा कुल मिटाया है, तो तेरे कुल का भी नाश हो जायेगा और तू अपने पाप का भयकर फल भोगेगा । तेरे सारे कुचक्र के वाद भी मुझे तो पानी देने वाला भी होगा, तू निस्सहाय होकर तडप तडप कर प्यासा ही मर जायेगा। यह एक सती का वचन हैं, जो कभी खाली न जायेगा।" गाधारी के इन शब्दो को सुनकर सभी काप उठे । श्री कृष्ण का दिल भी दहल गया और पाण्डव भी भयभीत हो गए। पर तीर हाथ से छूट चूका था । सती के मुंह से शाप निकल ही गया था। अब क्या हो सकता था । श्री कृष्ण ने अपनी ओर से बहुत ही स्पष्टी करण दिया, पर गाधारी को वे सन्तुष्ट न कर सके । ___ इस समय व्यास जी ने क्रुद्ध सती को शांत करने के उद्देश्य से कहा-"देवी । तुम महान सती हो । तुम पाण्डवो पर कुद्ध, न होयो। उनके प्रति मन मे द्वपन रक्खो क्योकि टेप अधर्म को जन्म देता है । याद है तुम्ही ने तो युद्ध प्रारम्भ होने से पूर्व कहा था कि जहा धर्म होगा, जीत भी उन्ही की होगी। और आखिर वही हुआ। जो बाते बीत चुकी उन्हे याद करके मन मे वैर रखना अच्छा नही है । तुम्हारी सहन शीलता और धैर्य का यश समस्त ससार मे फैल रहा है । अव तुम अपने स्वभाव को मत बदलो । यही ठीक है कि तुम मा हो, मॉ के हृदय मे अपने पुत्रो के प्रति जो ममता होती है,

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