Book Title: Navsmaranadisangraha
Author(s): Vicharshreeji, Damayantishreeji
Publisher: Nagindas Kevalshi Shah Ahmedabad

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Page 190
________________ १५७ चतुःशरणप्रकीर्णकम् । अरहंतसरणमलसुद्धिलद्धसुविसुद्धसिद्धबहुमाणो। पणयसिररइयकरकमलसेहरो सहरिसं भणइ ॥२३॥ कम्मलुक्खयसिद्धा, साहाविअनाण-दंसणसमिद्धा। सव्वट्ठलद्धिसिद्धा, ते सिद्धा हुँतु मे सरणं ॥२४॥ तिअलोअमत्थयत्था, परमपयत्था अचिंतसामत्था। मंगलसिद्धपयत्था, सिद्धा सरणं सुहपसत्था ॥२५॥ मूलुक्खयपडिवक्खा, अमूढलक्खा सजोगिपञ्चक्खा। साहाविअत्तसुक्खा, सिद्धा सरणं परममुक्खा ॥२६॥ पडिपिल्लिअपडिणीआ, समग्गझाणग्गिदड्ढभवबीआ। जोईसरसरणीआ, सिद्धा सरणं समरणीया ॥२७॥ पाविअपरमाणंदा, गुणनीसंदा विदिन्नभवकंदा। लहुईकयरवि-चंदा, सिद्धा सरणं खविअदंदा ॥२८॥ उबलद्धपरमबंभा, दुल्लहलंभा विमुक्कसंरंभा। भुवणघरधरणखंभा, सिद्धा सरणं निरारंभा ॥२९॥ सिद्धसरणेण नयबंभहेउसाहुगुणजणिअअणुराओ। मेइणिमिलंतसुपसत्थमत्थओ तत्थिम भणइ ॥३०॥ जिअलोअबंधुणो कुगइसिंधुणो पारगा महाभागा। नाणाइएहिं सिवसुक्खसाहगा साहुणो सरणं ॥३१॥ केवलिणो परमोही, विउलमई सुअहरा जिणमयम्मि । आयरिय-उवज्झाया, ते सव्वे साहुणो सरणं ॥३२॥ चउदस-दस-नवपुब्बी, दुवालसिकारसंगिणो जे अ। जिणकप्पा-ऽहालंदिअ-परिहारविसुद्धिसाहू अ ॥३३॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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