Book Title: Navsmaranadisangraha
Author(s): Vicharshreeji, Damayantishreeji
Publisher: Nagindas Kevalshi Shah Ahmedabad
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आतुरप्रत्याख्यानप्रकीर्णकम् | १६५ निंदामि निंदणिज्नं, गरिहामि अजं च मे गरहणिलं । आलोएमि अ सव्वं, अभितरबाहिरं उवहिं ॥३१॥ जह बालो जपतो, कजमकजं च उज्जु भणइ । तं तह आलोइज्जा, मायामयविप्पमुको य ॥३२॥ नाणम्मि दसणम्मि य, तवे चरित्ते य चउसु वि अकंपो। धोरो आगमकुसलो, अपरिस्सावी रहस्साणं ॥३३॥ रागेण व दोसेण व, जंभे अकयन्नुआपमाएणं । जो मेकिंचि वि भणिओ, तमहं तिविहेण खामेमि॥३४॥ तिविहं भणंति मरणं, बालाणं बालपंडियाणं च । तइयं पंडियमरणं, जं केवलिणो अणुमरंति ॥३५।। जे पुण अट्ठमईया, पयलियसन्ना य वकभावा य । असमाहिणा मरंति, न हु ते आराहगा भणिया ॥३६॥ मरणे विराहिए देवदुग्गई दुल्लहा य किर बोही। संसारो य अणंतो, हवइ पुणो आगमिस्साणं ॥३७॥ का देवदुग्गई ? का अ बोहि ? केणेव बुज्झई मरणं ?। केण अणतं पारं, संसारं हिंडई ? जीवो ॥३८॥ कंदप्पदेवकिविसअभिओगा आसुरी य सम्मोहा । ता देवदुग्गईओ, मरणम्मि विराहिए हुंति ॥३९॥ मिच्छादंसणरत्ता, सनियाणा किन्हलेसमोगाढा। इह जे मरंति जीवा, तेसिं दुलहा भवे बोही ॥४०॥ सम्मइंसणरता, अनियाणा सुकलेसमोगाढा । इह जे मरंति जीवा, तेसि सुलहा भवे बोही ॥४॥
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