Book Title: Navsmaranadisangraha
Author(s): Vicharshreeji, Damayantishreeji
Publisher: Nagindas Kevalshi Shah Ahmedabad

View full book text
Previous | Next

Page 229
________________ नवस्मरणादिसडहे तुम साखे महाराज रे जिनजी, देई सारं कान रे जिनजी मिच्छा मि दुक्कडं आज । ए आंकणी ॥१॥ देव मनुष्य तियंचनां जी, मैथुन सेव्यां जेह । विषयारस लंपटपणे जी, घj विडंब्यो देह रे जिनजी० ॥२॥ परिग्रहनी ममता करी जी, भवे भवे मेली आथ । जे जिहां ते तिहां रह्यु जी, कोई न आवे साथ रे जिनजी० ॥३॥ रयणीभोजन जे कयाँ जी, कीयां भक्ष अभक्ष । . रसनारसनी लालचे जी, पाप कयों प्रत्यक्ष रे जिनजी० ॥४॥ वत लेई वीसारीयां जी, वळी भाग्यां पञ्चखाण । कपट हेतु किरिया करी जी,कीधां आप वखाण रे जिनजी० ॥५॥ त्रण ढाळे आठे दुहे जी, आलोया अतिचार । शिवगतिआराधन तणो जी, ए पहेलो अधिकार रे जिनजी मिच्छा मि दुकडं आज ॥६॥ हाल ४ थी (साहेलडीनी देशी) पंच महाव्रत आदरो साहेलडी रे, अथवा ल्यो व्रत बार तो। यथाशक्ति व्रत आदरी साहेलडी रे, पाळो निरतिचार तो ॥१॥ व्रत लीधां संभारीए सा०, हैडे धरीए विचार तो। शिवगतिआराधन तणो सा०, ए बीजो अधिकार तो ॥२॥ जीव सवी खमावीए सा०, योनि चोराशी लाख तो। मन शुद्ध करि खामणां सा०, कोइशु रोष न राख तो ॥३॥ सर्व मित्र करि चितवो सा०, कोई न जाणो शत्रु तो। राग द्वेष एम परिहरो सा०, कीजे जन्म पवित्र तो ॥४॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only ___www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 227 228 229 230 231 232 233 234 235 236 237 238 239 240 241 242 243 244 245 246 247 248 249 250 251 252 253 254 255 256 257 258