Book Title: Navsmaranadisangraha
Author(s): Vicharshreeji, Damayantishreeji
Publisher: Nagindas Kevalshi Shah Ahmedabad
View full book text
________________
श्रीगौतमस्वामिनो रास।
२०३ नवि बुध नवि गुरु कवि न कोइ जसु आगळ रहियो, पंचसया गुणपात्र छात्र हीडे परवरियो । करे निरंतर यज्ञकर्म मिथ्यामति मोहिय, इण छळ होशे चरण नाण दंसणह विसोहिय ॥६॥
(वस्तु छंद) जंबूदीवह जंबूदीवह, भरहवासंमि, खोणीतलमंडन मगधदेस सेणिय नरेसर, वर गुब्बर गाम तिहां, विप्प वसे वसुभुइ सुंदर । तसु भजा पुहवि सयल, गुणगणरूवनिहाण । ताण पुत्त विजानिलओ, गोयम अतिहि सुजाण ||७||
(भाषा) चरम जिणेसर केवलनाणी, चउविह संघ पइट्ठा जाणी। पावापुरी स्वामी संपत्तो, चउविह देवनिकाये जुत्तो ॥८॥ देव समवसरण तिहां कीजे, जिण दीठे मिथ्यामति खीजे । त्रिभुवनगुरु सिंहासण बइठ्ठा, ततखिण मोह दिगंते पइट्टा ॥९॥ क्रोध मान माया मद पूरा, जाये नाठा जिम दिन चोरा । देवदुंदुहि आकाशे वाजे, धर्म नरेसर आव्या गाजे ॥१०॥ कुसुम वृष्टि विरचे तिहां देवा, चोसठ इंद्र जसु मागे सेवा । चामर छत्र शिरोवरि सोहे, रूपहि जिणवर जग सहु मोहे ॥११॥ उवसमरसभरभरी वरसंता, जोजन वाणी वखाण करता। बाणवि वर्धमान जिण पाया, सुर नर किन्नर आवे राया ॥१२॥ कांतिसमूहे झलझलकंता, गयण विमाणे रणरणकंता । पेखवि इंदभूइ मन चिंते, सुर आवे अम्ह यज्ञ होते ॥१३॥
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org

Page Navigation
1 ... 234 235 236 237 238 239 240 241 242 243 244 245 246 247 248 249 250 251 252 253 254 255 256 257 258