Book Title: Navsmaranadisangraha
Author(s): Vicharshreeji, Damayantishreeji
Publisher: Nagindas Kevalshi Shah Ahmedabad

View full book text
Previous | Next

Page 234
________________ पुण्यप्रकाशन स्तवन २०१ में अपराध घणा कर्या ए, कहेतां न लहुं पार तो।। तुम चरणे आव्या भणी ए, जो तारे तो तार जयो० ॥२॥ आश करीने आवीयो ए, तुम चरणे महाराज तो। आव्याने ऊवेखशो ए, तो केम रहेशे लाज जयो० ॥३॥ करम अल्लूजण आकरां ए, जन्म मरण जंजाल तो।। हुँ छु एहथी ऊभगो ए, छोडव देव दयाल जयो० ॥४॥ आज मनोरथ मुज फळ्या ए, नाठां दुःखदंदोल तो । तूठो जिन चोवीसमो ए, प्रगट्या पुण्यकल्लोल जयो० ॥५॥ भवे भवे विनय तुमारडो ए, भाव भक्ति तुम पाय तो।। देव दया करि दीजिए ए, बोधिबीज सुपसाय जयो० ॥६॥ कलश इह तरण तारण सुगतिकारण, दुखनिवारण जग जयो । श्रीवीरजिनवर चरण थुणतां, अधिक मन उल्लट थयो ॥२॥ श्रीविजयदेवसुरिंदपटधर, तिरथ जंगम एणि जगे। तपगच्छपति श्रीविजयप्रभसूरि, सूरितेजे झगमगे ॥२॥ श्रीहीरविजयसूरिशिष्य वाचक, कीर्तिविजय सुरगुरुसमो। तस शिष्य वाचक विनयविजये, थुण्यो जिन चोवीसमो ॥३॥ सय सतर संवत ओगणत्रीशे, रही रांदेर चोमास ए। विजयदशमी विजयकारण, कियो गुणअभ्यास ए ॥४॥ नरभव आराधन सिद्धिसाधन, सुकृत लील विलास ए। निर्जराहेते स्तवन रचियु, नामे पुन्यप्रकाश ए ॥५॥ पुन्यप्रकाशनुं स्तवन संपूर्ण ॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 232 233 234 235 236 237 238 239 240 241 242 243 244 245 246 247 248 249 250 251 252 253 254 255 256 257 258