Book Title: Navsmaranadisangraha
Author(s): Vicharshreeji, Damayantishreeji
Publisher: Nagindas Kevalshi Shah Ahmedabad

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Page 221
________________ धन धन ते दिन मुज कदी होस्ये, हुं पामीश संजम सुद्धो जी। पूर्वऋषिपंथे चालशु, गुरु वचने प्रतिबुद्धो जी ॥धन०॥१॥ अंत पंत भिक्षा गोचरी, रणवणे काउस्सग्ग करशुं जी। समता शत्रु मित्र भावसुं, संवेग सूधो धरशुं जी ॥धन०॥२॥ संसारना संकट थकी, हुं छूटीश अवतारो जी। धन धन समयसुंदर ते घडी, तो हुँ पामीश भवनो पारो जी॥धन०॥३॥ पद्मावती आराधना। हवे राणी पद्मावती, जीवराशी खमावे । जाणपणुं जगते भलं, इण वेळा आवे ते मुज मिच्छामि दुक्कडं॥१॥ ते मुज मिच्छामि दुक्कडं, अरिहंतनी शाख । जे में जीव विराधीया, चउराशी लाख ते मुज०॥२॥ सात लाख पृथ्वीतणा, साते अपकाय । सात लाख तेउ कायना, साते वळी वाय ॥ते मुज०॥३॥ देश प्रत्येक वनस्पति, चउदह साधारण । बि त्रि चउरिंद्रि जीवना, बे बे लाख विचार ।।ते मुज०॥४॥ देवता तिर्यंच नारकी, चार चार प्रकाशी। चहुदह लाख मनुष्यना, ए लाख चोराशी ॥ते मुज०॥५॥ इण भव परभवे सेवीया, जे पाप अढार । त्रिविध त्रिविध करी परिहरं, दुर्गतिना दातार ॥ते मुज०॥६॥ हिंसा कीधी जीवनी, बोल्या मृषावाद । दोष अदत्तादानना, मैथुन उन्माद ॥ते मुज०॥७।। Jain Education International For Private & Personal Use Only ___www.jainelibrary.org

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