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जितनी गहरी गयी वहाँ निशान किया। फिर नौका बाहर निकालकर गज को उतारकर, नौका को जल में ले जाकर पत्थर भरने लगा । उसी निशान जितनी नौका जल में गयी उतने पत्थर उसने भर दिये। फिर नौका को बाहर निकालकर उन पत्थरों को तुलवाकर राजा से कहा आपका हाथी इतना वजनवाला है। राजा उसकी बुद्धि से विस्मित होकर उसे बहुमानपूर्वक अपने घर ले गया । वहाँ स्नानादि करवाकर बहुत गौरव से भोजनादि करवाकर, अपने महल में उसे ठहराया । उसे सभी कलाओं में विशारद जानकर उसकी इच्छा न होते हुए भी अपनी पुत्री मणिमंजरी का विवाह उसके साथ कर दिया । फिर राजा ने उसको एक देश और बड़ा महल भी दिया । फिर उसने उस देश के आसपास के अनेक राजाओं को वश में कर राजा की व अपनी प्रतिष्ठा विस्तारित की । एकबार सूरराजा को जीतने के लिए जयानंद स्वयं गया और उसे जीतकर राजा के पास ले आया । सूरराजा ने विशालजय राजा को प्रणाम किया । तब जयानंद के कहने से उसे अपने राज्य में भेज दिया । क्योंकि सत्पुरुषों का क्रोध प्रणाम तक ही रहता है। सूरराजा ने, मुझे एक बालक ने जीत लिया ऐसा सोचकर अपने पुत्र को राज्य देकर स्वयं प्रवर्जित हुआ । क्रमश: निरतिचार चारित्र का पालनकर केवलज्ञान प्राप्तकर मोक्षगामी हुआ। जयानंद ने अपने भाई को लक्ष्मी आदि देने का प्रयत्न किया पर ईर्ष्या और अभिमान के कारण उसने कुछ नहीं लिया । स्वेच्छा से वहाँ रहा ।
कहा हैं-मनुष्य पुन्योदय से ही भोग के भाजन बनते हैं।
भाग्य एवं शत्रु पर विजय से राज्य की वृद्धि करनेवाले जयानन्द पर राजा और प्रजा दोनों अत्यंत खुश थे। इस प्रकार समय जा रहा था । सिंहसार मन में जल रहा था। उसने उसको दुःखी करने के लिए एकांत में कहा "हे भाई! हम देशांतर जाने के लिए घर से निकले