Book Title: Jayanand Kevali Charitra
Author(s): Jayanandvijay
Publisher: Guru Ramchandra Prakashan Samiti

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Page 154
________________ जाने की इच्छा करने पर मुझे सिंह को हितशिक्षा देने और राज्य की रक्षा के लिए आग्रहपूर्वक रखा और तापस होने न दिया । मैं भी तुझे मिलने की इच्छा से रहा । सिंह मुझ पर माया पूर्ण विनय भक्ति बताता था । मैं मायावी की माया जान न सका । एकदिन उसने गुप्त मंत्रणा के लिए बुलाकर मुझे कैद किया । तेरी माता को, मेरे विश्वसनीय सैनिकों को भी कैद कर दिया। हम दोनों को एकस्थान पर रखे । सुरदत्त वीरदत्त किसी प्रकार भागकर धीरराज के घर रहे। वहाँ रहकर उन्होंने सुरंग खुदवाने का कार्यकर उस काराग्रह से हमें मुक्त किया । वहाँ से हम यहाँ आये । मार्ग में सभी मेरे भक्त थे, अतः हमें कोई कष्ट नहीं हुआ । कुमार ने सोचा 'उपकारी पर भी कैसी दुर्जनता!' उन तीनों को बुलाकर वस्त्रालंकार और पृथक्-पृथक् ग्राम नगर आदि देकर सम्मान किया । फिर सोचा "सिंह को मैंने राजा बनाया अब मैं ही उसको कैसे राज्य भ्रष्ट करूँ?'' इसलिए लेख लिखकर मेरे स्वजनों को छोड़ने के लिए लिखू । न माने, तो फिर उसका निग्रह करने में कोई दोष नहीं । क्योंकि दूध बिगाड़नेवाले स्वयं के श्वान को क्या ताड़ा नहीं जाता? ऐसा विचारकर दूत के साथ लेख भेजा । लिखा कि मेरे स्वजनों को शीघ्र सम्मान पूर्वक छोड़ दे, मेरे पिता का लूटा हुआ सर्वस्व दे दे, नहीं तो मुझे तेरा निग्रह करने के लिए आना पड़ेगा। पत्र पढ़कर उसने विजय के देश, विजय की संपत्ति और उसके स्वजन सब को मुक्त कर दिये। विजय ने अपने देश और संपत्ति स्वजनों को दे दी। एकदिन पिता के पूछने पर उसने घर से निकलने से प्रारंभकर आज दिन तक जो जो घटनाएँ जैसी हुई थी पिता के सामने वर्णित की । उस समय कई लोगों ने बातों को सुनी । सुनने-वालों ने आश्चर्यकर वे बातें अनेकों को सुनायी । इस प्रकार जगत् मैं जयानन्दकुमार का चरित्र वर्णित होने लगा ।

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