Book Title: Jayanand Kevali Charitra
Author(s): Jayanandvijay
Publisher: Guru Ramchandra Prakashan Samiti

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Page 188
________________ पश्चिम दिशा के काष्ट में उधइ, उत्तरदिशा के काष्ट में अनर्गल मेंढकियाँ जल रही हैं। उन काष्टों को शीघ्र चीरकर आग को बुझाकर उन जीवों को बचाकर, इस तापस को प्रतिबोध दे। वह शीघ्र प्रतिबोधित होगा।" विद्यादेवी अपने स्थान पर गयी। राजा वहाँ गया, और अपने पितृव्य को किंचित् नमनकर बोला "सब धर्मों में दया मुख्य बतायी है। दान, मौन, विद्या, देवार्चन, दया के बिना निष्फल है, जो जीव और अजीव को सम्यग् प्रकार से नहीं जानता, वह दया का पालन कैसे करेगा? सम्यक् प्रकार से जिनागमों के अभ्यास और सद्गुरु के उपदेश के बिना दया का अंश भी ज्ञात नहीं हो सकता । इस संसार में निधी औषधि मणि की खानें कदम-कदम पर हैं, पर सिद्ध पुरुष की नजरों में ही वे आती हैं । हे तात! दयाका पालन समीचीन प्रकार से करें । इस पंचाग्नि में दया का अंश भी नहीं है।" इस पंचाग्नि में सर्प, सरट, उदेही, और मेंढ़की जल रही हैं। जयानंदराजा ने उनको निकालकर, जय तापस को बताकर, सम्यक् प्रकार से उन्हें धर्म समझाया। देव, गुरु और धर्म का स्वरूप समझाया उन्होंने उसे स्वीकार किया। उसी दिन पूर्वदिशा के चम्पक उद्यान में पांचसौं शिष्यों के साथ आगमसागरसूरि पधारे। विजयराजर्षि भी पधारे थे । समाचार मिलने पर जयानंद राजा जयतापस सभी दर्शन वंदन के लिए गये । पंचाभिगमपूर्वक तीन प्रदक्षिणा देकर सभी यथा-योग्य स्थान पर बैठे । श्री आगमसागरसूरि ने संसारदावानल उपशांतक देशना दी । दया मूलधर्म का विस्तारपूर्वक विवेचन किया । जयतापस प्रतिबोधित होकर दीक्षा के लिए उद्यत हुए, तब जयानंद ने महामहोत्सवपूर्वक दीक्षा विधि संपन्न करवायी। श्रीजयराजर्षि के साथ अनेक लोगों ने दीक्षा ली। किसीने श्रावक १८७ ।

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