Book Title: Jayanand Kevali Charitra
Author(s): Jayanandvijay
Publisher: Guru Ramchandra Prakashan Samiti

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Page 175
________________ | किया । उस समय अनेक मंगल वाद्य बजे । हर्ष और जयजयध्वनि चारों ओर गूंज उठी । चक्रसुंदरी भी उनके रूप को देखकर अत्यंत प्रमुदित हुई । फिर विद्या के बल से वज्रपिंजर को भेदकर, बेड़ियाँ तोड़कर चक्रायुध को अपने पास सिंहासन पर बिठाया । चक्रायुध उसके इस रूप और औदार्य को देखकर, अपने दुःख को भूल गया । पवनवेगादि सभी राजाओं ने दोनों को प्रणाम किया । फिर अन्य राजाओं के भी नागास्त्र आदि बंधन तोड़कर मुक्त किये । परस्पर सभी मिलकर जयानंद के रूप को और औदार्य को देखकर प्रणाम करके यथायोग्य स्थान पर बैठे । जयानंद ने चक्रसुंदरी को बुलाकर खेट राजा से कहा "इस पुत्री को आप की इच्छानुसार वर को दो। मैंने तो कौतुक से इसका अपहरण किया था।" उसने पिताको रोती हुई प्रणामकर कहा "पिताजी, आपको मैंने महान् संकट में डालकर जो अपराध | किया, उसे क्षमा करें ।" खेट राजा ने कहा "बेटी! इसमें तेरा लेश भी अपराध नहीं है। क्षत्रिय कन्या तो स्वयंवरा हो सकती है। तूने तो अति उत्तम वर को चुना है। मैंने ही इस चिंतामणि को नहीं पहचाना । मैं मेरे ही गर्व दोष से विपत्ति का भागी हुआ हूँ। तेरी ही प्रार्थना से इसने मेरा वध नहीं किया । हे वत्से ! पिता की रक्षा से प्रमुदित हो । रो मत!" पिता ने दासियों के साथ उसे महल में भेजी । जयानंद ने खेचर चक्री को कहा "हे नरोत्तम! मुझे इसने जीता ऐसा खेद मत करो । इस जय को मैं काकतालीय न्याय मानता हूँ । तुम्हारे समान देव, असुर और मानवों में कोई सुभट नहीं है। मुझे युद्ध में अनुभव हुआ है। विद्याबल और शस्त्र बल से जय नहीं, यह पूर्वकृत पुण्य का फल है। जय-पराजय शूरों - १७४ ।

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