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बल से शाश्वत चैत्यों की वंदना करते हुए, सप्त क्षेत्रों में धन व्यय करते हुए, सत्पात्रों का पोषण करते हुए, व्रतों का पूर्ण पालन करते हुए, अनेक प्रकार के धर्मकार्यकर आयुष्य पूर्णकर, हे लक्ष्मीपुंज तू यहाँ उत्पन्न हुआ है। और गुरु उपदेशित विशुद्ध धर्म का परिपालनकर मैं आयु पूर्णकर व्यंतरेन्द्र हुआ हूँ । तुम्हारे पूर्वभव के धर्म स्नेह से यहाँ आकर, तेरे घर में अक्षीण लक्ष्मी की निरन्तर वर्षा कर रहा हूँ । इस प्रकार व्यन्तरेन्द्र ने उसके संदेह को दूरकर दिव्य हार आदि देकर उसकी अनुमति लेकर अपने स्थान पर गया । इस प्रकार अपना पूर्वभव सुनकर सुत्रामा ने जाति स्मरण ज्ञान प्राप्त किया । अर्हद् धर्म में दृढ़ धर्मश्रद्धा रखकर चारों प्रकार के धर्म में दत्तचित्त रहने लगा । फिर चारित्र ग्रहणकर एकादशांगी का अध्ययनकर, शुद्धचारित्र पालनकर अच्युत देवलोक में देव हुआ । बाईस सागरोपमका आयु पूर्णकर के राजा बनेगा । वहाँ चारित्र लेकर मोक्ष प्राप्त करेगा । इस प्रकार लक्ष्मीपुंज का चरित्र श्रवणकर अदत्तादान की विरति ग्रहण करनी चाहिए । जयानंदकुमार के पास यह कथा सुनकर रतिमाला ने अदत्तादान की विरति ग्रहणकर ली । अन्य व्रत लेकर श्रावक धर्म ग्रहण किया । रतिसुंदरी के साथ कुमार सुखमय समय व्यतीत कर रहा था"
___ एकबार जयानंदकुमार ने प्रातःसमय स्वप्न में किसी पर्वत के पास किसी नगर के चौराहे पर अपने आप को काष्ट के बोझ सहित, कुरूपावस्था में भिल्ल सदृश देखा । जागृत हुआ और सोचा यह कैसा स्वप्न? इसका फल क्या? इतने में दक्षिण नेत्र स्फुरायमान हुआ। तब सोचा यह स्वप्न समीचीन और शुभ फल प्रद है।' ऐसा विचारकर एक बड़ा पट तैयारकर निपुणता से चित्रकार के पास जैसा देखा वैसा पर्वत, नगर, चतुष्पथ, आदि चित्रित करवाये । फिर उद्यान में ऋषभ | देव के चैत्य के पास एक मनोहर दानशाला बनवायी और वहाँ वह 'पट' आने जानेवालों को बताने का अपने आदमियों को आदेश दिया।