Book Title: Jayanand Kevali Charitra
Author(s): Jayanandvijay
Publisher: Guru Ramchandra Prakashan Samiti

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Page 162
________________ उद्यान में एक चारण श्रमण मुनि को मेरी पत्नी मुझे मिलेगी या नहीं?" एसा पूछा तब उन्होंने कहा "हे भद्र! हमारे पूर्वभव सुन।" "भरतक्षेत्र में, सिद्धपुरनगर में, जिनधर्मी पूर्णभद्र श्रेष्ठि था। उसके कोशल-देशल दो पुत्र थे। वहाँ श्रावक गुणदत्त की गुणमाला पत्नी से गुणसुंदरी पुत्री थी। वह भी धर्मानुष्ठान में रूचिवाली थी। उसके गुण से आकर्षित होकर, राजा के मंत्री सागर ने याचना की। गुणदत्त ने 'मेरी पुत्री मिथ्यात्वी को नहीं दूंगा।' ऐसा कहा। वह क्रोधित होकर गया । इधर कोशल की शादी गुणवती नामक कन्या से हुई। उसका पिता पूर्णभद्र परलोक जाने के बाद, कोशल ने अपने भाई देशल के लिए गुणसुंदरी की याचना की। गुणदत्त ने दे दी। अब वे दोनों धर्मध्यानपूर्वक अपना समय व्यतीत करते थे। उस नगर में वैश्रमण नामक धनवान् श्रावक था । उसके चार पुत्र थे । धन, धनपति, धवल और सुयश!। एकबार उसने अपने पुत्रों को हितशिक्षा देकर कहा "प्रेम से रहना, अगर प्रेम न रहे, तो इस घर के चारों कोने में तुम्हारें नामांकित कलश डाले हुए हैं। उसमें समभाग किया हुआ है। वह ले लेना। धन के लिए कलह मत करना। पिता विधिपूर्वक व्रताराधनाकर स्वर्ग गया । फिर बहुत काल बाद पृथक् होने के लिए स्त्रियों से प्रेरित वे कलश निकालकर ले आये बड़े के भाग्य में धूलि, दूसरे के भाग्य में अस्थी, तृतीय के भाग्य में कागज और छोटे के भाग्य में स्वर्ण निकला । फिर चारों में कलह होने लगा । छोटा कुछ देने को तैयार नहीं । तीनों बटवारा चाहते थे । न्याय के लिए राजा के पास गये। राजा ने अपने ४९९ मंत्रियों को न्याय करने को कहा। परंतु वे न्याय कर न सके । नगर में उद्घोषणा हुई । कोशल ने पटह स्वीकारा । राजसभा में आकर उसने चारों को बुलाकर पूछा ૧ ૧

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