Book Title: Jayanand Kevali Charitra
Author(s): Jayanandvijay
Publisher: Guru Ramchandra Prakashan Samiti

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Page 164
________________ पर मरकी,. शाकिनी आदि की पीड़ा शांत हो जायगी। मेरे नगर में शांति हो गयी। उसी धूलि को आपके राज्य में शांति हो, इसलिए भेजी है। व्यर्थ में कोई स्वर्ण कलश में धूलि क्यों भरेगा?'' राजा ने उस मिट्टी से तिलक किया और मंत्री, राजसेवक, अंत:पुर आदि में सभी को तिलक हेतु मिट्टी दी । कोशल से कहा "तेरे स्वामी को कहना" "सदा ही, अपनी अखंड मैत्री रहेगी । आपका जो भी कार्य हो वह नि:संकोच हमें कहना।" पूछा-"तेरे राजा की आज्ञा शक्ति कैसी है?" कोशल ने कहा "राजन् ! मेरे राजा की आज्ञा शक्ति से मानव तो क्या पशु भी स्तंभित हो जाय। इतने में कोलाहल सुनकर राजा ने पूछा । प्रतिहार ने कहा "मदांध हाथी स्तंभ उखाड़कर उपद्रव कर रहा है। लोग भयभीत होकर इधरउधर भाग रहे हैं। इसका यह कोलाहल है। तब राजा ने कोशल से कहा "तेरे राजा की आज्ञा की परीक्षा करवा दे ।" तब कोशल ने राजा के साथ जाकर गज स्तंभिनी विद्या का गुप्त रूप से स्मरणकर प्रकट में अपने राजा की आज्ञा देकर, गज को स्तंभितकर दिखा दिया । उससे चमत्कृत हुआ राजा बोला "तेरे राजा के पास है वैसी दिव्य धूलि तो मेरे पास नहीं है। मैं अमूल्य पदार्थ क्या दूं? फिर भी ये हाथी अश्व अलंकारादि दे रहा हूँ, वे राजा को देना।" राजा ने कोशल का भी वस्त्रालंकारादि से सम्मान किया। इधर गुप्तचरों से सागर मंत्री ने कोशल का वृत्तांत ज्ञातकर, उसके सम्मुख आकर क्षमायाचना की अपना अपराध राजा से निवेदन न करने की विनति की। उसने स्वीकार किया । फिर राजा के पास आकर कोशल ने भेट राजा के सामने रख रिपुमर्दन का संदेश सुनाया । राजा ने प्रसन्न होकर उसे एक देश देना चाहा, पर परिग्रह परिमाण में राज्य न होने से उसने ग्रहण नहीं किया। राजा ने सोचा, इसने जो किया है, वह राज्य भंडार दे दूं तो भी

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