Book Title: Jayanand Kevali Charitra
Author(s): Jayanandvijay
Publisher: Guru Ramchandra Prakashan Samiti

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Page 172
________________ शब्द को सहन नहीं करेगा । इसके अवदात तो जनमुख से सुने हैं । विशालसेन राजा इस पर प्रसन्न हुआ, गिरी मालिनीदेवी को वश में की, गिरिचूड़ देव को कोलरूप में जीता, देवने औषधि दान से इसकी पूजा की, बलवान् मलयमाल देव को हराया, विप्ररूप में पद्मरथ को जीतकर कपिकर के विंडबित किया, वामनरूप में आकर श्रीपति राजा की तीनों कन्याओं को कला में जीतकर उनका स्वामी बना, योगिनी की कैद से वज्रवेग को छुड़ाया, कामाक्षा, महाज्वाला योगिनियों से अक्षुभित, उनके द्वारा प्रदत्त अनेक दिव्य शस्त्रों का स्वामी, वज्रमुख देव से चंद्रगति की पत्नी को छुड़वानेवाला यह जगत्रयीमल्ल नारीरूप में दुर्जय है, ऐसा आप मानकर कोप छोड़ दें। सुता किसीको भी देनी है तो ऐसे नरवीर के समान दूसरा कुमार मिलना दुर्लभ है। अतः स्वामिन् ! मौलि कंकणवाली बात को छोड़कर कन्या इसे देकर स्वार्थ सिद्ध कीजिए। ये पवनवेगादि सभी आपके ही सेवक रहेंगे ।" इतना सुनकर चक्रायुध बोला "ये तुम्हारे वचन अनिष्ट की आशंका और मुझ पर स्नेह से बोले गये हैं। हठ से परकन्या लेनेवाले को मैं सहनकर उसे कन्या दे दूं तो मेरी महिमा क्या? पवनवेगादि ने जो किया वह उनकी तुच्छ बुद्धि का फल है। भले ही यह जयानंद हो पर मेरे शस्त्र अभी भी शक्ति युक्त है। मेरे बल के सामने वह खड़ा भी नहीं रह सकेगा? मेरे सामने ब्रह्मा, सूर्य, इंद्र और कृष्ण भी आ जाय तो मैं उन्हें भी जीत लूं तो स्त्री की क्या ताकत?" तब सचिवों ने कहा "ऐसा आपका विचार हो तो आपके खेचरों को भी बुला लो। फिर युद्ध प्रारंभ करो।" वैसा ही किया गया । तीसरे दिन युद्ध का निर्णय लिया गया । चक्रायुध के मित्र विद्याधर ससैन्य आ गये। चक्रायुध की एक हजार अक्षौहिणी सेना और मायावी स्त्री के पक्ष में एक सौ अक्षौहिणी सेना थी। (हाथी र १७१ न

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