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आयुष्य पूर्णकर समाधिपूर्वक स्वर्गगामी हुआ । उसकी पत्नी भी कुछ दिनों बाद समाधिपूर्वक स्वर्गगामिनी हुई। लक्ष्मीपुंज अपने प्रधान पुरुषों पर संपूर्ण विश्वासकर भौतिक सुखों का उपभोग पूर्ववत् करता रहा । "
एकबार प्रभात में धर्मजागरिका के समय विचार आया । 'मेरे जन्मदिन से लगाकर आज दिन तक लक्ष्मी अक्षय किस कारण से है । इतना विचार करते ही उसके सामने एक दिव्य देहधारी देव | संशय मिटाने के लिए प्रकट हुआ । लक्ष्मीपुंज ने सोचा 'यह कोई दिव्य देहधारी है, देव है, दानव है, योगीन्द्र है या खेचरेन्द्र है ? जो भी हो यह कोई गुणवान् है । अपने घर आये हुए शत्रु का भी स्वागत होना चाहिए, तो यह तो पूज्य है इस प्रकार विचारकर उसको हाथ जोड़कर बोला" आप कौन है ? किस कारण से और कहाँ से, आप यहाँ पधारें ? इस प्रकार कुमार की विनयगर्भित वाणी सुनकर देव लक्ष्मीपुंजकुमार को नमस्कारकर बोला " पूर्वजन्म के स्नेहतंतु से बंधा मैं सुरंग देव तेरी शंका का निवारण करने के लिए यहाँ आया हूँ । अब सावधान होकर सुन ! "
"जंबूद्वीप के दक्षिण भरतार्द्ध में मध्यखंड में मणिपुर नामका नगर था । वहाँ श्रीपाल राजा राज्य करता था । धनाढ्य श्रेष्ठ धनपति नामका रहता था । उसकी प्रिया प्रीतिमती थी । उनका सुत्रामा नामक पुत्र कलाकुशल, यौवनास्था में आया। माता-पिता ने अनेक कन्याओं के साथ उसका पाणिग्रहण करवाया । वह भौतिक भोगों का उपभोग एवं धनार्जन कर रहा था । एकबार मित्रों के साथ क्रीड़ा करते हुए उद्यान में गया, वहाँ चारण श्रमण मुनि को देखा । वंदना की । गुरु ने धर्माशीष देकर भद्रक प्रकृतिवाला जानकर विस्तार पूर्वक साधु धर्म और श्रावक धर्म अनेक उदाहरण पूर्वक समझाया । सुत्रामाकुमार ने भी उनकी वाणी से प्रतिबोधित होकर यथारुचि, सम्यक्त्व सहित व्रतों को ग्रहण किया । उसमें
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